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जैनदर्शन में तत्त्ववाद
विश्व मच पर जितने दार्शनिक विचार उभरे, उन सबकी भिन्नभिन्न परम्पराए हैं, स्वतत्र मान्यताए हैं । तत्त्ववाद भी सबका अपना-अपना है। उनमे एक है जैन-दर्शन । यह भारतीय दर्शनो की एक मुख्य धारा है । उसकी परम्परा स्वतत्र है । तत्त्व-मीमासा मौलिक है।
___ तत्त्व का सामान्य अर्थ है-वास्तविक या अस्तित्ववान् पदार्थ । रहस्यभूत पदार्थ को भी तत्त्व कहते हैं । चैतन्य का विकास या मोक्ष-मीमासा के परिप्रेक्ष्य में तत्त्व का अर्थ है-पारमार्थिक वस्तु । चैतन्य जागरण और परम सत्ता की उपलब्धि हेतु इन नत्त्वो का सम्यग् बोध अपेक्षित है । जैन-दर्शन के अनुसार मुख्य रूप से तत्त्व दो हैं--जीव और अजीव । ससार के दृश्यअदृश्य, सूक्ष्म-स्थूल, मूर्त-अमूर्त, जड-चेतन-सभी पदार्थों का समावेश इन दो तत्त्वो मे हो जाता है। ऐसा कोई भी पदार्थ नही बचता, जिसका अन्तर्भाव इस तत्त्वद्वयी मे न हो। ससार के समस्त पदार्थों को कम से कम समूहो मे वर्गीकृत किया जाए तो उनकी दो राशिया होती हैं - १ जीव-राशि
२ अजीव राशि। इन दोनो का विस्तार से विश्लेषण किया जाए तो अनेकानेक भेद हो सकते हैं।
जैन-दर्शन मे तत्त्व-प्रतिपादन की दो दृष्टिया रही हैं - जागतिक और आत्मिक । जागतिक रहस्यो के उद्घाटन हेतु छ द्रव्यो का सूक्ष्मविश्लेषण जैन-दर्शन की अदभत देन है। आध्यात्मिक-विकास के अनुचितन मे दो दृष्टिया प्रमुख हैं-वन्धन और बन्धन के हेतु तथा मोक्ष और मोक्ष के हेतु । इस समूची प्रक्रिया का बोध एक अध्यात्म-साधक के लिए नितात अपेक्षित है । नौ तत्त्वो का प्रतिपादन इसी दिशा का एक स्वस्थ उपक्रम है। पट् द्रव्य और नव तत्त्व के प्रतिपादन को दर्शन-जगत् मे अस्तित्ववाद और उपयोगितावाद भी कहा जाता है। जो ज्ञेय पदार्थ मोक्ष-साधना मे उपयोगी हैं, जैन-दर्शन की भाषा मे वे तत्त्व कहलाते हैं।
जीव, अजीव, पुण्य, पाप, मास्रव, सदर, निर्जरा, वन्ध और मोक्षये तो तत्त्व है।
___ जीव-चैतन्य का मजन प्रवाह । दूसरे शब्दो मे जिसमे चैतन्य हो, सुख-दुख का संवेदन हो वह जीव है ।