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जैनदर्शन में तत्त्ववाद
उसका दूसरा विदु है-मटकाने वाले तत्त्वो से बचाव और तीसरा विदु हैसही दिशा में जागरूक अभिक्रम ।
अध्यात्म-साधक का परम लक्ष्य है-द्वन्द्व-मुक्ति-मोक्ष । उसके वाधक तत्त्व हैं बघ, पुण्य, पाप और आस्रव । लक्ष्य प्राप्ति के साधक तत्त्व हैं-सवर और निर्जरा।
नौ तत्त्वो में चार तत्त्व अजीव हैं, अजीव की अवस्थाए हैं - अजीव, पुण्य, पाप और वन्ध ।
पाच जीव हैं, जीव की अवस्थाए हैं-जीव, आस्रव । सवर, निर्जरा और मोक्ष।
इन नौ तत्त्वो को नौ पदार्थ या नव सद्भाव पदार्थ भी कहते हैं। नौ तत्त्वो का सम्यक् वोध सम्यक्त्व की आधार-मित्ति है । सम्यक्त्व का अर्थ है-यथार्थ तत्त्व-श्रद्धा । सम्यक् ज्ञान के विना श्रद्धा में स्थायित्व नहीं आता। अत प्रत्येक साधक के लिए कम से कम नी तत्त्वो का ज्ञान करना अनिवार्य है।
दशवकालिक सूत्र में बताया गया है कि तत्त्वज्ञान मोक्ष-यात्रा का प्रथम सोपान है । उसके विना निर्वाण और दुख-मुक्ति सभव नहीं।
जीव और अजीव को जानने से अहिंसा की सही समझ विकसित होती है । उससे आचार-व्यवहार सयत होता है उसका फलित है-मुक्ति । मुक्ति का आरोह-क्रम यह है -
१ जीव-अजीव का ज्ञान । २ जीवो की बहुविध गतियो का ज्ञान । ३ पुण्य, पाप, वध और मोक्ष का ज्ञान । ४ भोग-विरति । ५ तरिफ और वाह्य सयोगो का त्याग । ६ अनगार-वृत्ति । ७ अनुत्तर सवर-योग की प्राप्ति । ८ अयोधि से अजित पाप-कर्मो (कर्म-रजो) का विलय । ९ फेवल-ज्ञान, केवल-दर्शन की उपलब्धि । १० अयोग-अवस्था। ११ सिद्धत्व-प्राप्ति ।
-दावकालिक ब ४/१४ - २५ । नाचार्य श्री भिक्षु ने एक बहुत ही सुन्दर रूपक के माध्यम से नौ तत्त्वो फो नमझाया है -
जीव एक तालाव (जलाशय) के समान है। मजीव तालाब पर अभाव रूप है।