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________________ त्रिपदी अस्तित्व के तीन आयाम लौ सदा प्रज्वलित रहती है। वह कभी नहीं बुझती । वचपन, जवानी और बुढापा ये जीवन-यात्रा के अनिवार्य घुमाव हैं। यह परिवर्तन हमारे अनुभव के दर्पण मे स्पष्ट प्रतिबिम्बित है । यदि कोई मूविंग केमरे मे व्यक्ति की क्षण-क्षण मे बदलने वाली अवस्थाओ को कैद करना चाहे तो करने वाला थक जाएगा किंतु अवस्थाओ का कोई अन्त नहीं आएगा । यह स्थूल शरीर के परिवर्तन का चित्र है। इसके अतिरिक्त हमारे सूक्ष्म शरीर मे कितने रासायनिक परिवर्तन होते हैं, कितने विद्युतीय परिवर्तन होते हैं, कितने भावनात्मक और आध्यात्मिक परिवर्तन होते हैं, जिनका लेखा-जोखा नही लगाया जा सकता। ___शरीर शास्त्रीय खोजो ने यह सिद्ध कर दिया है कि प्रत्येक सात वर्ष की अवधि मे मनुष्य-शरीर आमूल-चूल बदल जाता है, उसकी प्रत्येक कोशिका बदल जाती है । इस क्रम मे सत्तर वर्ष मे आदमी का शरीर दस बार वदल जाता है। शरीर मे दस लाख रक्त कोशिकाए प्रतिक्षण उत्पन्न-विनष्ट होती रहती हैं । तथापि प्रतिक्षण घटित होने वाले परिवर्तन मे भी एक ऐसा अपरिवर्तनीय ध्रुव तत्त्व है, जो हमे प्रतीत कराता है कि यह वस्तु वही है, यह शरीर वही है, यह व्यक्ति वही है । यही है वस्तु का त्रिआयामी अस्तित्व । यही है बदलाव में भी ठहराव । यही है जमाव मे भी बहाव । यही है परिवर्तन-शीलता मे भी ध्रुवता। परिवर्तन में भी जीवन घारा वही है । पर्यायें क्षणभगुर हैं । चेतना अविनाशी है। जैसे चेतन कभी अचेतन नही होता, वैसे ही अचेतन मे कभी चैतन्यगुण प्रकट नही होता । पुद्गल-जड तत्त्व चाहे कितना ही रूपातरित हो जाए उसकी मौलिकता कभी समाप्त नहीं होती। पुद्गल की मौलिकता हैस्पर्श, रस, गध और रूप । अणु से लेकर अनन्त प्रदेशी स्कन्ध तक प्रत्येक पुद्गल मे इनकी सत्ता वरावर है । मिट्टी चाहे सोना बन जाए, शरीर चाहे जल कर राख हो जाए, गोबर चाहे गैस बन जाए, पानी चाहे भाप बनकर शून्य मे विलीन हो जाए, फिर भी उसका पुद्गलत्व समाप्त नही होता। यह मौलिकता एक सचाई है तो परिवर्तन भी सचाई है। कोई भी जड-पदार्थ परिवर्तन के नियम का अपवाद नही है । मिट्टी के अनेक आकार-प्रकार बनते-बिगडते रहते हैं । पर मिट्टी तत्त्व सब मे समान है। सोने की अनेक अवस्थाए हैं, अनेक वस्तुए हैं, पुरानी वस्तु मिटती हैं, नयी बनती हैं, पर सोना सोना है। उसका अस्तित्व सव मे एक जैसा है। तीन भाई हैं, उनके पास एक स्वर्ण-कलश है। एक को वह प्रिय है, दूसरा उसे मिटाकर मुकुट बनाना चाहता है । तीसरे को सोने से मतलव है,
SR No.010225
Book TitleJain Dharm Jivan aur Jagat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakshreeji
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages192
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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