________________
जैनधर्म जीवन और जगत्
૨૪
३ / १०) जन्म के प्रारम्भ मे पोद्गलिक सामर्थ्य के निर्माण को पर्याप्ति कहते हैं ।
जन्म के प्रारम्भ में तेजम-कामर्ण शरीर द्वारा गृहीत पुद्गल समूह से जीव जिस जीवनोपयोगी पौद्गलिक शक्ति या शरीर उपकरणो का निर्माण करता है, वह पर्याप्त है। यानी वह उन गृहीत पुद्गलो को आहार, शरीर, न्द्रिय, मन आदि रूपो में परिणत कर वैसी पौद्गलिक क्षमताओ का अर्जन कर लेता है जिसमे, उनी जीवन-यात्रा मे कठिनाई न हो । वे शक्तिया मुख्यत ६ प्रकार की होती हैं, अत पर्याप्निया भी छह हैं(१) आहार पर्याप्ति ( २ ) शरीर पर्याप्ति ( ३ ) इन्द्रिय पर्याप्ति ( ४ ) श्वासो - च्छ्नाम पर्याप्ति (५) भाषा पर्याप्ति (६) मन पर्याप्ति ।
जैन तत्त्वज्ञान में दो शब्दो का काफी प्रयोग होता है - पर्याप्त और अपर्याप्त । पर्याप्त का सीधा अर्थ होता है पूर्ण, अपर्याप्त का सामान्य अर्थ समझा जाता है अपूगं । किन्तु यहा इसका अर्थ भिन्न होता है । जिस प्राणी को जिस जीवन में जितनी पर्याप्ति का प्रबंध करना होता है, वह प्रबंध पूरा हो जाता है तो वह प्राणी पर्याप्त कहलाता है, जव तक वह काम पूरा न हो जाये वह अपूर्ण है अपर्याप्त है । पर्याप्त निर्माण से पूर्व ही जिस जीव की मृत्यु हो जाती है, वह भी अपर्याप्त कहलाता है । ये पर्याय देहधारी प्राणियों के शक्ति-स्रोत हैं ।
पर्याप्तियो के लाभ
(२) जाहार पर्याप्त को पूर्ण कर लेने वाला प्राणी शरीर आदि पानी पर्याय योग्य पुद्गल का ग्रहण कर लेता है। इसके द्वारा वह जीवन भरने की क्षमता अर्जित कर लेना है। प्राण धारण करने पुद्गनो आर्पण आहार कहलाता है । प्राणी छहो पर्याय (सोना) के लिए जाहार ग्रहण करता है । वह छहो दिपा में दिया जाता है। इनमें ऊ दिशा अर्थात् मिर और अधो दिशा अर्थात पैसे से जाहार का गहण जविक मात्रा मे होता है । आहार पर्याप्त द्वारा जीन जीवन में आहार प्रायोग्य पुद्गली के ग्रहण परिणमन और ना जर्जित कर लेना है।
1
(:) पर पर्याप्त द्वारा शरीर के अगोपांगो का निर्माण होता है।पाको शरीरशास्त्रीय दृष्टि से अधिक स्पष्टता के माय मानता है।
हो या मनुष्य, अपने जीवन का
कोशिका से प्रारम्भ कर मनुष्य का गिनिजन द्वारा अपने आपका पुन दोगुना करता है । इम
चाहे छोटा
प्रारम्भ राशि में करना है। एक