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________________ ४६ जैनधर्म : जीवन और जगत् इस वर्गीकरण से स्पष्ट हो जाता है कि औदारिक शरीर सबसे अधिक स्थल होता है । वैक्रिय शरीर उससे अपेक्षाकृत सूक्ष्म होता है । उससे सूक्ष्म आहारक शरीर होता है । आहारक से भी सूक्ष्म होते हैं तैजस और कार्मण शरीर । औदारिक शरीर यह शरीर रसादि धातुमय है । स्थूल पुद्गलो से निष्पन्न है । यह मृत्यु के बाद भी टिका रह सकता है ! इस का छेदन-भेदन हो सकता है । यह अस्थि, मज्जा, मास, रुधिर आदि से निर्मित है इसलिए विशरण धर्मा है। यानी इसका स्वभाव है गलना-मिलना और विनष्ट होना । इस शरीर का चयापचय होता रहता है। इस शरीर की सबसे छोटी इकाई है कोशिका । प्रतिक्षण लाखो करोडो कोशिकाए नष्ट होती हैं और नयी कोशिकाए उत्पन्न होती रहती हैं। शरीर भौतिक है। आत्म-स्वरूप की उपलब्धि मे या मुक्ति मे बाधक है। अवतार वे ही आत्माए लेती हैं जो सशरीरी हैं । सिद्धात्माए शरीर-मुक्त होती हैं । वे पुनः जन्म नहीं लेती । औदारिक शरीर मुक्ति का साधक भी है । वह इसलिए कि मोक्ष की साधना और प्राप्ति केवल औदारिक शरीर से ही सभव है। यह औदारिक शरीर एकेन्द्रिय जीवो से लेकर मनुष्य और तिर्यंचपचेन्द्रिय तक सब जीवो को प्राप्त होता है। वैक्रिय शरीर भाति-भाति के रूप बनाने में समर्थ शरीर वैक्रिय कहलाता है। विक्रिया-विभिन्न प्रकार की क्रियाए घटित होना । वैक्रिय शरीर-धारी प्राणी छोटा-बडा, सुरूप-कुरूप, एक-अनेक चाहे जैसा, चाहे जितने रूप बना सकता है । मृत्यु के पश्चात् इस शरीर का कोई अवशेष नहीं रह जाता। यह पारे की तरह विखर जाता है। देवो और नैरयिक जीवो के वैक्रिय शरीर होता है । मनुष्य और तिर्यंच मे भी यह सामर्थ्य हो सकती है । उसे वैक्रिय लब्धि कहते हैं । वायुकाय मे सहज ही वैक्रिय शरीर होता है । आहारक शरीर ___ यह विचारो का सवाहक शरीर है। इसमे विचार-सप्रेषण की अद्भुत क्षमता होती है । विशिष्ट योग शक्ति-सम्पन्न चतुदर्श पूर्वधर मुनि विशिष्ट प्रयोजनवश एक विशिष्ट प्रकार के शरीर की रचना करते हैं । उसे आहारक शरीर करते हैं। इस शरीर के द्वारा प्रयोक्ता हजारो मीलो की दूरी को क्षण भर मे तय कर लक्षित व्यक्ति के पास पहुंच जाता है।
SR No.010225
Book TitleJain Dharm Jivan aur Jagat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakshreeji
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages192
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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