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महान् जैन नरेश मगध सम्राट् श्रेणिक
१५९ कैवल्य-लाभ के पश्चात् उनके प्रति श्रेणिक की अनन्य भक्ति और प्रगाढ श्रद्धा के अनेक उदाहरण जैन आगम साहित्य मे उल्लिखित हैं । जिज्ञासु श्रावक
श्रेणिक की जैन धर्म के प्रति गहरी अनुरक्ति ने जन-साधारण को प्रभावित किया। भक्ति ने भगवान् को रिझाया। राजगह की उर्वरा धरती से उठने वाली अध्यात्म क्राति की सभावनाओ के कारण ही श्रेणिक के समय भगवान महावीर ने राजगह मे वर्षावास विताये थे।
सम्राट् थेणिक उस समय प्राय नियमित रूप से समवसरण मे उपस्थित होते । व्याख्यान श्रवण करते समय उनक मानस मे जो भी जिज्ञासाए उभरती, भगवान के सामन प्रस्तुत करते और उनका समुचित समाधान प्राप्त कर अत्यात आल्हादित होते ।
___ भगवान् महावीर और श्रेणिक के अनेक सस्मरण आज भी जैनवाडमय मे गुम्फित हैं। उनमे श्रेणिक का जिज्ञासु रूप प्रखरता से अभिव्यक्त हुआ है । एक जैन सम्प्रदाय की तो यहा तक मान्यता है कि राजा श्रेणिक ने भगवान् महावीर से ६० हजार प्रश्न पूछे और भगवान् ने उनका समाधान किया। भावी तीर्थकर
एक वार सम्राट् श्रेणिक महावीर के समवसरण मे प्रवचन मुन रहे थे । एक कुष्ठी उनकी बगल में बैठा था। उसने महावीर को देखकर कहा-"मर रे ।" श्रेणिक से कहा-"जी रे।" अभयकुमार से कहा"चाहे जी चाहे मर ।" कालशौकरिक कसाई भी उधर से होकर गुजरा, कुष्ठी ने उसकी ओर सकेत कर कहा-"न मर, न जी।" यह असम्बद्ध प्रलाप सुनकर श्रेणिक के संनिको ने उसे पकडना चाहा । पर वह देखते-देखते ही अन्तरिक्ष मे विलीन हो गया । णिक ने इस देव माया के बारे में जानने की उत्सुकता व्यक्त की । भगवान् महावीर ने कहा-घेणकि यह दुष्ठी के रूप में देवराज इन्द्र या। इसने जो कुछ कहा- यथार्थ कहा है। जैने मुके मरने के लिए कहा-वह इसलिए कि मेरे आगे मोक्ष है। तुझे जीने पे लिए कहा – क्योकि तुम्हारे लिए आगे नरक है। अभयकुमार का यह जीवन पविय है । वह परम धार्मिक है और उसके लिए आगे भी सद्गति है, स्वयं है इन दृष्टि से उसका मरना और जीना दोनो ही शुभ है। कालगोकरिक का यह जीवन नी बीभत्स है और जगला भी बीभत्ल होगा। वह जागे नरक मे जाएगा। इसलिए उससे कहा "न जी, न मर।" अर्थात् तेरा जीना और मरना दोनो ही अशुभ हैं। अपने नरक-गमन की बात सुनकर घेनिक लन्ध रह गये। उन्होने कहा-प्रभो ! आपका भक्त होकर भी -