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महान् जैन नरेश : मगध सम्राट्
श्रेणिक
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भगवन् । पूर्णिया श्रावक अपनी सामायिक देने को तैयार है। उसने कहा है कि सामायिक का जो मूल्य भगवान् बतायेंगे उतने में ही हम सौदा कर लेंगे | प्रभो । वताइए सामायिक का मूल्य क्या होना चाहिये ।
भगवान् ने कहा--"श्रेणिक | पूणिया श्रावक तो सामायिक देने के लिए तैयार हो गया है लेकिन उसे खरीद पाना तेरे लिए कठिन है ।" श्रेणिक चौक पडा । "भगवन् । मगध सम्राट के लिए भी कोई सौदा कठिन हो सकता है ? प्रभो । जिस सामायिक के द्वारा मेरी नरक-यात्रा और घोर यातनाए टल सकती हैं, उसके लिए में मेरे सपूर्ण कोप को भी लुटा सकता हू ।”
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श्रेणिक | तुम अपने कोप की बात कर रहे हो, लेकिन उसकी सामायिक के सामने कोप तो क्या तुम्हारा सपूर्ण साम्राज्य भी तुच्छ और नगण्य है । तुम यदि धरती से चन्द्रलोक तक भी स्वर्ण और मणिमुक्ताओ का ढेर लगा दो, तो भी सामायिक का मूल्य तो क्या, उसकी दलाली का मूल्य भी पूरा नही हो सकता |
यह सुनकर श्रेणिक ठगाठगा सा रह गया । उसकी आशाओ पर तुषारापात हो गया । भगवान् ने प्रतिबोध की भाषा मे कहा - भौतिक ऐश्वर्य के द्वारा आध्यात्मिक आनन्द कभी खरीदा नहीं जा सकता । साधना के द्वारा ही उस परम तत्त्व की अनुभूति हो सकती है । दूसरी बात, साधना स्वयं के द्वारा ही होती है, दूसरे की अच्छी और बुरी प्रवृत्ति दूसरे के हित और अहित का प्रत्यक्ष निमित्त नही बन सकती ।
श्रेणिक । सघन कर्म के विपाक स्वरूप यह नरक यात्रा अवश्यभाविनी है, उसे भोगना ही होगा । किन्तु तुम निराश मत बनो । आगामी चौबीसी मे तुम प्रथम तीर्थंकर बनोगे । वहा तुम्हारे और मेरे बीच की खाई ममान हो जाएगी ।
परम धर्मानुरागी
सम्राट् श्रेणिक अपनी शक्ति के अनुसार धर्म-साधना करते हो थे । साथ-साथ दूसरो को भी इस क्षेत्र मे प्रेरित करते रहते थे । उनका ताधनिक वात्सल्य अनुकरणीय था । मुमुक्षु और विरक्त व्यक्तियों को साधना के क्षेत्र मे उतने और जागेढने के लिए वे अपनी जार से हर मभव सहयोग देते थे ।
एक वार श्रेणिक ने अपने राज्य, परिवार, सामन्तों तथा मंत्रियों बीच घोषणा करवाई कि कोई भी व्यक्ति भगवान् महावीर के पास दीक्षा ग्रहण करना चाहे तो मैं उसे रोकूंगा नहीं ।