Book Title: Jain Dharm Jivan aur Jagat
Author(s): Kanakshreeji
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 182
________________ महान् जैन नरेश मगध सम्राट् श्रेणिक १५७ पश्चात् चेटक - अपने ज्येष्ठ भ्राता चिलाती-पुत्र के जैन श्रमण बन जाने के लगभग ई०पू० (५८७-८८९) मे वे मगध - सिंहासन पर आरूढ हुए । सुता चलना श्रेणिक की अग्रमहिषी थी । अनुश्रुतियो के आधार पर चेलना से विवाह के समय श्रेणिक बौद्ध धर्म से प्रभावित थे । इसलिए प्रमुख जैन श्रावक चेटक ने अपनी प्रतिज्ञानुसार अपनी कन्या को एक विधर्मी राजा को देने से इन्कार कर दिया। लेकिन श्रेणिक ने छल - पूर्वक चेलना को प्राप्त कर लिया । चेलना की जैन-धर्म के प्रति अनन्य आस्था थी । जैन बनाने के अनेक प्रयत्न किये । तथा सम्राट् ने उसे रगना चाहा । पर कोई किसी को झुका नही सका । एक दिन सम्राट् महानिग्रंथ अनाथी को ध्यान-लीन देखा । निकट गया। वार्तालाप किया और अन्त मे जैन बन गया । उसके पश्चात श्रेणिक का जैन प्रवचन के साथ उसने सम्राट् को वौद्ध धर्म के रंग मे घनिष्ठ सम्बन्ध जुड गया जैन धर्म के प्रति पुन आस्था सभवत भगवान् महावीर के कैवल्य-लाभ से पूर्व ही श्रेणिक की आस्था पुन जैन धर्म मे केन्द्रित हो गई थी । जैन आगमों के अनुसार उनके जैन धर्म से प्रभावित होने का निमित्त बना था - जैन मुनि अनाथी का प्रथम सपर्क | टपक रही थी । वे श्रमण पर दृष्टि वन- क्रीडा के लिए गये हुए श्रेणिक ने "मण्डिकुक्षि" नामक रमणीय उद्यान मे एक तरुण जैन श्रमण को देखा । उनका शरीर सुकोमल था । आकृति भव्य थी । मुख से असीम सौम्यता और शाति एक वृक्ष के नीचे ध्यान मुद्रा मे बैठे थे । ज्योही उन तरुण टिकी, मगध सम्राट् के मुख से अनायास शब्द मुखरित हुएअहो वष्णो अहोरूव, अहो अज्जस्स सोमया । अहो खन्ती अहो मुत्ती, अहो मोगे असगया ॥ कैसा वर्ण ? कैसा रूप ? इस आर्य की कैसी सौम्यता ? कैसी क्ष्मा ? कैसा त्याग ? कैसी इनकी भोगनिस्पृहता ? मुनि के आकर्षण से आकृष्ट श्रेणिक उनके निकट गये और आश्चर्यं भरी वाणी से पूछने लगे - आर्य | आप तो अभी तरुण है, अत अभी तो आपके भोगोपभोग का समय है । यह विराग का नही, अनुराग का समय है । त्याग का नही, भोग का समय है । योग का नही हर विषय के प्रयोग का समय है । मुझे आश्चर्य होता है, इस जवानी मे भी आप क्यो सन्यासी वन गये हैं । मुनि ने कहा - "राजन् । में जनाय था ।" बाइए - आज ने में राजा - " आप जैसे बुद्धिमान भी अनाव

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