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रत्नत्रयी जैन साधना का आधार
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आचार्य उमास्वाति लिखते हैं
"सम्यग-दर्शन-ज्ञान-चारित्राणि मोक्ष-मार्ग ।" वस्तुत रत्नत्रयी का समवाय ही मोक्ष-मार्ग है। तीनो मिलकर ही मुक्ति के हेतु बनते हैं । अकेले में मोक्ष-मार्ग बनने की क्षमता नही है । जव ज्ञान, दर्शन और चारित्र एक दूसरे से निरपेक्ष होते हैं, आपस मे बट जाते हैं, तो न ज्ञान सम्यक् रहता है, न दर्शन सम्यक् रहता है और न चारित्र सम्यक् रहता है । मिथ्या ज्ञान, दर्शन और आचरण व्यक्ति को मूढ बनाते हैं । मोक्ष की आराधना मे तीनों का सम्यक् होना और परस्पर सापेक्ष होना अनिवार्य है । कोरा ज्ञान या कोरा आचार मुक्ति का हेतु नही बन सकता । सम्यक ज्ञान, दर्शन और चारित्रइस त्रिवेणी मे डुबकी लगाने से ही शुद्धि और सिद्धि उपलब्ध होती है।
___ जन-धर्म आतरिक शुद्धि पर वल देता है । शुद्धि का घटक तत्त्व हैअन्तर्यात्रा । अतर्यात्रा का अर्थ है शुद्ध चतन्य का अनुभव करना । चैतन्य का स्वरूप है-ज्ञान, दर्शन, आनन्द और शक्ति । इनकी आराधना ही चैतन्य की आराधना है । यही धर्म है।
___ इस रत्नत्रयो मे दर्शन का स्थान पहला है । यह मोक्ष-साधना का महत्त्वपूर्ण आधार है । आधार सुदृढ होता है तो भवन-निर्माण सहज और स्थायी होता है । दर्शन के साथ ही ज्ञान घटित होता है और उससे चारित्र (स्व मे अवस्थित होने का भाव) जागृत होता है। सक्षेप मे यही है जन साधना पद्धति । उसका केन्द्र है-दर्शन और परिधि है-पवित्र आचरण ।
यूनान के महान दार्शनिक सुकरात ने धर्म की परिभाषा की-"ज्ञान ही धर्म है । ज्ञान से भिन्न कोई धर्म नहीं है।"
तीर्थकर महावीर ने कहा-"पढम नाण तओ दया।" धर्म मे पहला स्थान है ज्ञान और श्रद्धा का तथा दूसरा स्थान है अहिसा रूप आचार का। सुकरात ने कहा- वह ज्ञान वास्तव मे ज्ञान नहीं होता, जिसका आचरण न हो । आचरण-शून्य ज्ञान अयथार्थ है, मिथ्या धारणा है, भ्राति है। महावीर ने वहा-"आहसु विज्जा चरण पमोक्खो"~ ज्ञान और आचरण के योग से ही मोक्ष सभव है।
सुकरात ने कहा-शान यदि यथार्थ है, तो उसका आचरण अवश्य होगा । यधार्थ ज्ञान और आचरण को अलग नहीं किया जा सकता।
इम सदर्भ मे महावीर का एक मूल्यवान् शब्द है-परिज्ञा । उसकी समग्रता है--परिता-जानना और प्रत्याख्यान परिमा-सद् को छोडना । इन दोनो का योग ही मोक्ष-मार्ग की परिपूर्णता है। सम्य-दर्शन
इसका अर्थ है-पाषं दृष्टिकोण । दर्शन मोह के विलय से दर्शन