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जैन मुनियों की पद-यात्रा और उसकी उपलब्धियां
सन्त और संस्कृति
"ईरान और टर्की के बीच घमासान युद्ध । टर्की की निरन्तर पराजय । एक दिन ईरान के सूफी सत फरिदुदीन तुर्कों के हाथ पड गये। जासूसी का मारोप । फासी की सजा सुनाई गई। ईरान का एक धनाढ्य सत के बरावर हीरे-जवाहरात लेकर सत को मुक्त करने की माग करता है । अनेक ईरानी सत के बदले प्राण देने को तैयार हैं। टर्की सब याचनाओ को अस्वीकार कर देता है । आखिर ईरान के शाह टर्की के सुलतान से प्रार्थना करते हैं'आप राज्य ले लें, पर सन्त को छोड दें।' सुलतान आश्चर्यचकित । बात क्या है, जिस राज्य को हम पूरी ताकत के साथ लडकर भी नही पा सके, उसे आप एक 'आदमी' के बदले हमे सौंप रहे हैं ?
शाह बडी गभीरता के साथ तथ्य को अनावत करते हुए कहते हैंराज्य नश्वर है और सात अविनाशी । सत व्यक्ति नहीं होता, वह सस्कृति का प्रतीक होता है। हमने यदि सत को खो दिया तो ईरान सदा-सदा के लिए कलकित हो जाएगा।
बात सुलतान की समझ में आ जाती है-जिस देश में सतो का इतना सम्मान, उसे कौन पराजित कर सकता है। सत की वापसी के साथ ही दोनो देशो के मध्य युद्ध-चिराम की घोषणा हो जाती है।
यह घटना-प्रसग सत-परम्परा की सार्थकता को उजागर कर रहा है। आचार्य जिनदास महत्तर लिखते हैं
___ "विविह कुलुप्पण्णा साहवो कप्परूखा" सत-जन विविध कुलो मे उत्पन्न धरती के कल्पवृक्ष हैं। इससे भी आगे बढ़े तो लगता है, मानवता के लिए कल्पवृक्ष से भी अधिक वरदायी और महिमामय हैं सन्त ।
सन्तो का न निश्चित एक वेष होता है, न देश । न एक परिवेश होता है, न कोई स्थान विशेष । वे देते हैं मानव की आध्यात्मिक चेतना को नये उन्मेष और जीवन की दिव्यता का पावन सन्देश ।
वैसे सारे विश्व मे साधु-सतो की अपनी अलग ही अहंता और उपयोगिता है, लेकिन भारतीय संस्कृति का तो प्राण-तत्त्व ही सन्त-परम्परा