Book Title: Jain Dharm Jivan aur Jagat
Author(s): Kanakshreeji
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 168
________________ जैन मुनियो की पद-यात्रा और उसकी उपलब्धिया १४३ यात्मस्थ न हो, तो फिर वह 'गामाणुगाम विहरेज्जा'-ग्रामानुग्राम विहार करना प्रारम्भ कर दे । मन स्वस्थ हो जाएगा। किसी भी देश की सस्कृति का मूल रूप गावो में ही सुरक्षित रहता है। भारत की जनसंख्या का अधिकाश भाग तो गावो मे ही रहता है। मुनियो के पाद-विहार से कोटि-कोटि ग्रामीण जनता लाभान्वित होती है और साकृतिक चेतना के उन्नयन के नये आयाम उपलब्ध होते हैं। जन-जीवन मे धर्म का आलोक विखेरने के उद्देश्य से की गई जैनमुनियो की पद-यात्राए मानव-जीवन के अवरोध, कुण्ठा और कसक को धोकर उसे अनन्त आनन्द की दिशा मे यात्रायित करती है। जन-मुनियो के पाद-विहार का इतिहास बताता है कि वे जहाजिस प्रात मे गये, वहा की सभ्यता, सस्कृति और परम्पराओ का उन्होने सूक्ष्मता से अध्ययन किया । वहा के आचार, विचार, व्यवहार और लोकजीवन मे वे घुल मिल गये। वहा की भाषा सीखी । वे उसी भाषा मे बोले और उसी भाषा मे साहित्य सृजन किया । फलत वे जहा गये, जहा रहे, वहा की जनता के साथ उन्होने आत्मीय-सम्बन्ध स्थापित कर लिए । इसीलिए उन्हें वहा-वहां की घरती को उर्वर बनाने और जैन-सस्कारो की फसल उगाने मे अभूतपूर्व सफलता मिली । भारत की विविध-प्रातीय भाषाओं में जैन-मनीषियो द्वारा रचित साहित्य जितनी प्रचुर मात्रा में उपलब्ध होता है, उतना अन्य धर्माचायों या मनीषियो द्वारा लिखित उपलब्ध नहीं होता। जैनाचार्यों बोर जैन श्रमण-श्रमणियो का यह विपुल साहित्यिक अनुदान भी उनकी पद-यात्राओं को महत्त्वपूर्ण उपलब्धि है। जैनाचार्यों की ऐतिहासिक पद-यात्राओ ने विविध सस्कृतियो के मध्य सेतु का काम भी किया है। भारत की विविध-प्रातीय जनता की भाव-धारा को आध्यात्मिक और सास्कृतिक समन्वय के धागे से जोडा है। __ यह कितने आश्चर्य की बात है कि जैन-धर्म के सभी तीर्थकरो का जन्म उत्तर भारत मे हुआ और उनकी वाणी को विशदरूप देने वाले अनेक महान् आचार्यों को जन्म देने का सौभाग्य प्राप्त हुआ भारत के दक्षिणी मचल को । भगवान् महावीर की परम्परा मे अनेक यशस्वी आचार्योकुन्दकुन्द, अकलक, पूज्यपाद, समन्तभद्र, विद्यानन्दि, नेमिचन्द सिद्धांतचक्रवर्ती आदि का जन्म दक्षिण भारत मे ही हुआ था। इससे स्पष्ट सिद्ध होता है कि जैन मुनि जैन-धर्म और दर्शन की दिव्य ज्योति लेकर उत्तर से दक्षिण और पूर्व से पश्चिम तक पहुचे, वहा घूम-घूमकर उन्होने अध्यात्म की अलख जगाई और महावीर-वाणी की दिव्यता से लोक-चेतना को प्लावित किया । यह सारा श्रेय उनकी पद-यात्राओ को ही दिया जा सकता है।

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