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वैशाली गणतंत्र के अध्यक्ष जैन सम्राट चेटक
वैशाली गणराज्य
महावीर के युग में उत्तर-भारत मे राजतत्रीय और गणतत्रीय दोनो प्रकार की सत्ताए विकसित हो चुकी थी । वत्स, अवन्ती, मगध और कौशल -ये उस समय के राजतनीय या एकतत्रीय राज्य थे। उनकी शक्ति अपरिमित थी । वे साम्राज्यवाद की बलवती भावना से ओत-प्रोत थे। इनके अतिरिक्त अन्यान्य सभी सभागो मे गणराज्य या संघराज्य स्थापित थे। ये गणराज्य राजतत्रवाद के प्रबल विरोधी थे । यद्यपि इनकी शासन-प्रणाली पूर्णत जनतत्रात्मक नही थी, किन्तु उसे वर्तमान की जनतत्रीय प्रणाली का आदि रूप मानें तो कोई आपत्ति नही होगी। वैशाली गणतत्र के संचालक सदस्यो की विशाल सख्या के आधार पर प्रतीत होता है कि यह पूरे राष्ट्र के प्रत्येक वर्ग का प्रतिनिधित्व करती थी। इस माने मे वह जनतत्रात्मक सभा थी । लेकिन वर्तमान शासन-प्रणाली के साथ तुलनात्मक अध्ययन करने से पता चलता है कि उस युग के गणराज्य न तो पूरे एकतत्रीय राज्य थे, न पूरे प्रजातत्रीय । उसके प्रतिनिधि जनता द्वारा चुने गए व्यक्ति नहीं होते थे । अपितु कितने ही कबीले मिलकर उसका सचालन करते थे।
कात्यायन के अनुसार गणराज्य वह शासन-प्रणाली है जिसको एक विशिष्ट क्षत्रीय वर्ग संचालित करता है । अत जनतन्त्र का अन्तर स्पष्ट हो जाता है कि जनतत्र अयवा वर्तमान भारत का गणतत्र जहा जनता द्वारा चुने गये प्रतिनिधियो का शासन है वहा प्राचीन गणराज्य विशेषाधिकार प्राप्त व्यक्तियो द्वारा सचालित होते थे ।
वैशाली गणराज्य के सविधान के आधार पर आधुनिक विद्वानो का यह अभिमत पुष्ट हो रहा है कि तत्कालीन गणो मे कुलीन-तत्रात्मक राज्यव्यवस्था थी। फिर भी उक्त गणराज्य प्रजातत्र के अधिक अभिमुख थे।
उल्लिखित गणो मे राजनैतिक रूप से सबसे प्रसिद्ध गण वज्जियो (लिच्छवियो) का था। वह नौ सम्मिलित कबीलो का एक शक्तिशाली सघ था । वह सघ गणतत्रीय विचारो का प्रमुख केन्द्र था। इस जाति को अपनी इस विशिष्ट राजनैतिक व्यवस्था पर गौरव था। अपनी प्रभुता की सुरक्षा के लिए इसे समय-समय पर महान् बलिदान भी करने पड़े थे। संथागार और चेटक
लिच्छवी क्षत्रियो द्वारा शासित वज्जिसघ उस युग का एक आदर्श