Book Title: Jain Dharm Jivan aur Jagat
Author(s): Kanakshreeji
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 166
________________ जैन मुनियो की पद-यात्रा और उसकी उपलब्धिया १४१ सकता है और ऋतु-बद्ध-काल में एक मास । जैन मुनि के लिए चतुर्मास का काल एक स्थान मे रहने का उत्कृष्ट काल है । ऋतुबद्ध-काल मे एक स्थान मे रहने का उत्कृष्ट समय एक मास है। साध्विया एक स्थान मे दो मास तक भी रह सकती हैं। चिकित्सा आदि के अपवादो को छोडकर जिस स्थान में साधु-साध्विया एक बार उत्कृष्ट समय तक रह चुके होते हैं वहा पुन रहने के लिए समय की निश्चित मर्यादाए की गई हैं। जैन मुनियों की यात्रा के दो रूप हैं-अन्तर्यात्रा और बहिर्यात्रा। पहली चेतना के स्तर पर घाटत होती है और दूसरी का सम्बन्ध है बाह्यपरिवेश से । अन्तर्यात्रा मे अन्तश्चेतना अन्तर्जगत् की अन्वेषणा करती है। और बाह्ययात्रा में होता है-धर्म प्रचारार्थ जन-सपर्क का विस्तार । जैनमुनि इन दोनो ही यात्राओ के माध्यम से जीवन और जगत् के सूक्ष्म, जटिल एव बहुआयामी पहलुओ को समग्रता से जानने-समझने का प्रयत्न करते हैं। पद-यात्रा का आग्रह क्यो? __ आज के बौद्धिक वर्ग का एक ज्वलत प्रश्न है कि कुछ ही क्षणो में समग्र विश्व की परिक्रमा करने वाले द्रुतगामी यान-वाहनो के उपलब्ध होते हुए भी पद-यात्रा का आग्रह कहा तक उचित है ? क्या इससे समय और शक्ति का अपव्यय नही होता ? प्रश्न अवश्य चिंतनीय है। किन्तु अपनी लम्बी-लम्बी यात्राओं के माध्यम से विश्व-भ्रमण के नए कीर्तिमान स्थापित करना ही यदि जैनधमणो का उद्देश्य होता तो इस दिशा में बहुत पहले ही कोई क्रातिकारी कदम उठाया जा सकता था, लेकिन जैन-मुनियो का विहार तो वही तक अनुमत है, जहा तक उनकी साधना अक्षुण्ण रहे। उनके परिव्रजन से ज्ञान दशन और चारित्र-सम्पदा की अभिवृद्धि हो। अपने व्रतो को उपेक्षित कर मात्र जनकल्याण को प्रमुखता देने को वे आत्म-प्रवचना ही मानते हैं। यानयात्रा जहा एक ओर महावनो की सूक्ष्म धाराओ के साथ असगत है वहां दूसरी ओर साधक मे 'सुविधावादी' मनोवृत्ति का बीज-वपन भी कर देती है, जो उसकी सारी साधना को ही खोखली बना सकती है। दूसरी बात वाहनों से यात्रा करने मे वह आनन्द नहीं आता, जो पदयात्रा मे उपलब्ध होता है । वाहनो द्वारा तो मनुष्य ढोया जाता है। वहां उसकी स्वतयता छिन जाती है । वाहनो की निभरता से उसे कही अनचाहे रुकना होता है, ता कही चाहने पर भी अनेक दश्यो और स्थलो को अनदेखा ही छोडना पड़ता है। प्रकृति और मनुष्य के साथ सीधा-सपर्क भी पद-यात्रा से ही सम्भव हा सकता है । पद-यात्रा मे स्व-निभरता के साथ अनुभूतियों मे भी प्रवणता आती है। भौगालिक और सास्कृतिक स्थितियो के आकलन

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