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जैन मुनियों की पद यात्रा और उसकी उपलब्धियां
संस्कृति की प्रतिष्ठा, प्रसार और पल्लवन जीवन मे सदा से सन्तो की प्रतिष्ठा, वन्दना और है । आज भी वह निर्मल धारा भारत की धरती के करती हुई आगे बढ़ रही है । इसलिए भारतीयो के श्रद्धा-प्रणत हैं उन अध्यात्म-प्रचेता सतो की निष्काम सत और परिव्रजन
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के लिए भारतीय लोकअभिवदना होती आयी अणु अणु को आप्लावित कोटि-कोटि अन्त करण सेवाओ के प्रति ।
वैसे तो कोई भी अध्यात्म साधक जहा कही बैठकर अध्यात्म की धुनी रमाता है, वहा के पूरे वातावरण को प्रभावित करता है । उसके शारीरिक और मानसिक पवित्र विकिरणों से समग्र वायु-मडल शुद्ध होता है । उसके अन्त करण से निरन्तर प्रवाहमान प्रेम, करुणा और मंत्री की धाराए प्राणी जगत् की समस्त चैतसिक कलुषताओ को धो डालती हैं । उनके कर्जाकरण वातावरण में ऐसे उर्जस्वल विचार - वलयो को निर्मित करते हैं जिनमे विलयित विश्व चेतना ज्ञान, शक्ति और आनन्द के सरोवरों में निमग्न रह सकती है ।
जगलो, पहाडो और गुफाओ मे रहकर ध्यान-साधना करने वाले ऋषि-मुनि भले ही जन सपर्क से दूर रहे, उनका सास्कृतिक और आध्यात्मिक अनुदान किसी भी दृष्टि से कम नही कहा जा सकता। फिर भी आत्मकल्याण के साथ-साथ जन-कल्याण के पवित्र उद्देश्य से उनका परिव्रजन भी सांस्कृतिक उन्नयन और लोक-चेतना के जागरण की दृष्टि से अतिरिक्त मूल्यवत्ता रखता है । क्योकि समाज को सामाजिक और नैतिक दायित्व का बोध कराना भी साधु-समाज का पवित्र कर्तव्य हो जाता है । जैन मुनियों का परिव्रजन
प्राचीन काल मे सभी सत, भले ही वे जैन मुनि हो या वौद्ध भिक्षु सन्यासी हो या फकीर, जनता को प्रतिबोध देने या अपने-अपने धर्म का प्रचार करने, पैदल ही एक गाव से दूसरे गाव घूमा करते थे । अपनी इस घुमक्कड वृत्ति के कारण ही वे परिव्राजक कहलाते थे । किन्तु कालान्तर मे परिव्रजन गौण हो गया । अधिकाश साधु-सन्यासी मठो, मन्दिरो, आश्रमो और उपाश्रयो मे नियत - वासी हो गए। उनकी सुविधावादी मनोवृत्ति ने अथवा युगीन अपेक्षाओं ने यान - वाहनो के उपयोग को स्वीकृति दे दी । किन्तु जैन मुनियो ने अपने पद-यात्रा - क्रम को कभी उपेक्षित नही किया । सुख-सुविधाओं की प्रवाह किए विना, घोर कष्ट सहन कर जन-कल्याण के लिए अपने आपको समर्पित कर देने वालो मे जैन श्रमणो का स्थान अग्रणी है ।
पद-यात्रा क्यो ?
जैन मुनि अपरिग्रह के महान् व्रती होते हैं । इसलिए अकिंचन