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जैन जीवन-प्रणाली (२) जैन मुनि की आचार-संहिता
भारतीय संस्कृति और संन्यास
विश्व मे तीन सस्कृतियां प्रभावशाली मानी जाती हैं१ यूनानी सस्कृति, २ भारतीय संस्कृति और ३ चीनी सस्कृति ।
पहली समाज प्रधान, दूसरी व्यक्ति प्रधान और तीसरी परिवार प्रधान संस्कृति रही है । सन्यास का प्रादुर्भाव व्यक्ति प्रधान सस्कृति से हुआ। यह भारतीय संस्कृति का महान् अवदान है। भारतीय संस्कृति की मुख्य तीन धाराए हैं- वैदिक, वौद्ध और जैन। जैन साहित्य मे व्यक्तिवादी स्वर अधिक मुपर हुए। जैसे कि सुख और दुख अपना-अपना है। कर्मों का कर्ता मोर उनका फल-भोक्ता व्यक्ति स्वय है। अपने कृत कर्मों का फल व्यक्ति स्वय भोगता है। फल भोग मे किसी की साझेदारी या भागीदारी नहीं चलती। इन अध्यात्म-सूत्रो से प्रेरित हो हजारो-हजारो व्यक्ति आत्महित की साधना में सलग्न हो गए। यही है सन्यास-परम्परा के सूत्रपात की आदि कहानी । वसे भारतीय संस्कृति की तीनों ही धाराओ मे सन्यास की परपरा रही है। जैनो मे सन्यास-दीक्षा जीवन-पर्यन्त होती है, बौद्धो मे सावधिक होती है । वैदिको मे प्रारम्भ से दीक्षा (सन्यास) की स्वीकृति नहीं थी। यह जैन धर्म का ही प्रभाव मानना चाहिए कि वैदिक परम्परा में भी सन्यास को मान्यता मिली। वर्तमान में तीनो ही परम्परा के साधु-सन्यासी हजारो की सरया मे परिप्रजन करते हैं। उन सबकी अपनी-अपनी आचार-साहिता है । अपनी-अपनी विधिया हैं।
जैन-मुनियो की अहिंसा और अपरिग्रह प्रधान आचार-सहिता तया त्याग-पराग्य मुलक चर्या सदा से ही लोर-पेतना को प्रभावित करती रही
। मुनि के लिए नि न्य, समग, श्रमण, भिक्ष, जनगार आदि शब्दा लोग उपलब्ध होता है, जो पिरो जयों का नवाहक है। निग्रंप उनकी मार IT IT का, नमण समता , भ्रमण-धमनीलता और तपस्विना का, भि. भिसामपिता ना तथा जनगार-निर्मतता का प्रतीक है। नन नियों तो र ट नि साता के दर्शन होते हैं। वे नमन्शातीत चेतना के