Book Title: Jain Dharm Jivan aur Jagat
Author(s): Kanakshreeji
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 158
________________ जैन मुनि की आचार-सहिता १३३ हिंसा तो दूर, जैन मुनि पेड-पौधो आदि सूक्ष्म जीवो की हिंसा भी नहीं करते । जन तत्त्व विद्या के अनुसार पृथ्वी, पानी, अग्नि, वायु और वनस्पति को भी सजीव माना गया है। इन स्थावर जीवो को भी कष्ट न हो, इस दृष्टि से जैन मुनि सदा जागरूक रहते हैं। वे धरती का दोहन नहीं करते नदी आदि के कच्चे जल का उपयोग नही करते हैं, जल को गन्दा नही करते, आग नही जलाते, हवा को दूषित नहीं करते, हरियाली को काटना तो दूर उसे पांवो से भी नही कुचलते। सीधे शब्दो मे कहे तो वे सहज जीवन जीते हैं, प्रकृति की छेडछाड नहीं करते। अहिंसक वृत्ति के कारण किसी प्रकार का प्रदूषण फैलाकर पर्यावरण को क्षति नही पहुचाते। इसलिए कहा जा सकता है कि जैन मुनि न केवल मनुष्य जाति के अपितु सम्पूर्ण चराचर जगत के रक्षक हैं, त्राता हैं। २. सत्य महावत-मानसिक, वाचिक और कायिक ऋजुता का विकास तथा अविसवादन योग का अभ्यास । जैन मुनि किसी भी परिस्थिति में असत्य का सहारा नहीं लेते। असत्य भाषा का प्रयोग नहीं करते । असत्य बोलने के हेतु हैं-क्रोध, लोभ, भय और हास्य । मुनि इनका वर्जन करते हैं । वे किसी को आघात या कष्ट पहुचाने वाला, आपसी वैर-विरोध, तनाव या मन-मुटाव बढ़ाने वाला, हिंसा का निमित्त बनने वाला कठोर और निश्चयात्मक शब्द नहीं बोलते । सत्य-महानत के दो सुरक्षा प्रहरी हैं-वाणी का सयम और भाषा-विवेक । अविवेकपूर्ण और असयत वाणी का प्रयोग अनर्थ का कारण बन जाता है। ३ अचौर्य महाव्रत-स्वामी की अनुमति के बिना अल्पमूल्य या बहुमूल्य वस्तु का ग्रहण न करना तथा देव, गुरु और धर्म की आज्ञा का अतिक्रमण न करना।। बिना आज्ञा किसी के मकान मे रहना, किसी वस्तु का उपभोग करना, अभिभावको की अनुमति बिना किसी व्यक्ति को दीक्षित करना-ये कार्य जैन आचार शास्त्र सम्मत नही हैं। ४ ब्रह्मचर्य महाव्रत-मन, वाणी और शरीर की पवित्रता का विकास, वासना-विजय, आत्म-रमण। अब्रह्मचर्य घोर प्रमाद है । सयम और चरित्र का नाश करने वाला है। जैन मुनि पूर्ण ब्रह्मचारी होते हैं। ब्रह्मचर्य की सुरक्षा के लिए वे खाद्य-सयम, दृष्टि-सयम और स्मृति-सयम की साधना करते हैं। वासना को उत्तेजित करने वाले ससर्ग, पहनावा, चर्चा और वैसे साहित्य से स्वय को बचाते हैं। साधु-साध्विया क्रमश स्त्री और पुरुष का स्पर्श तक नहीं करते। उनके साथ एक आसन पर नही बैठते, एकात मे बातचीत नहीं करते। क्योकि साधना के प्रारम्भ मे निमित्तो से बचना आवश्यक हो जाता है।

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