Book Title: Jain Dharm Jivan aur Jagat
Author(s): Kanakshreeji
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 157
________________ १३२ जैनधर्म जीवन और जगत् जागरण द्वारा अनेकता में एकता के जीवन्त उदाहरण हैं । वस्तुत जिन रागात्मक सम्बन्धो के आधार पर परिवार या समाज का निर्माण होता है, उन सम्बन्धो का विच्छेद ही सन्यास या दीक्षा है। यह व्यक्ति-प्रधान सस्कृति की पराकाष्ठा है। धर्म व्यक्तिगत तत्त्व है, पर उसकी साधना से समूह प्रभावित होता है, सामूहिक चेतना जागती है, इसलिए वह समूहगत भी होता हैं । तेईसवें तीर्थंकर पार्श्वनाथ ने पहली बार धर्म-साधना को सामूहिक रूप दिया । श्रमण-सघ की स्थापना की। भगवान महावीर ने उसका उदात्तीकरण किया। इसी का परिणाम है कि आज भी जैन मुनि बडे-बडे सघो मे रहते हुए आत्म-साधना के पथ पर निर्बाध आगे बढ़ रहे हैं। जैन मुनि का आचार ___एक बार किसी नगर के उद्यान मे महान् ज्ञानी अध्यात्म दृष्टिसम्पन्न, सयम और तप मे लीन, अहत-प्रवचन के ममज्ञ प्रतापी जनाचार्य का आगमन हुआ। तत्कालीन राजा, राज्यमत्री, ब्राह्मण-विद्वान्, क्षत्रिय वर्ग आदि हजारो श्रोताओ ने उनका धर्म-प्रवचन सुना। उनकी जिज्ञासा जागी। प्रवचन के उपरात उन्होने पूछा-भन्ते ! हम जैन मुनि के आचार के विषय मे विस्तार से जानना चाहते हैं। आपको कष्ट न हो तो बताने का अनुग्रह करें। आचार्य ने उनकी जिज्ञासा को समाहित करते हुए कहा-मोक्षार्थी निर्गन्थो का आचार बहुत कठोर है, दुश्चीर्ण है। इस प्रकार का अत्यन्त दुष्कर आचार निर्ग्रन्थ-दर्शन के सिवाय कही नही मिलता । जैन आचार-शास्त्र के मौलिक नियम बालक, युवा, वृद्ध, स्वस्थ, अस्वस्थ सभी श्रमणो के लिए समान रूप से लागू होते हैं, उन्हे उनका अखड पालन करना होता है । मुनि का अर्थ है ज्ञानी । ज्ञान का सार है आचार । आचार का पहला सोपान है–समस्त प्राणियो के प्रति आत्मतुला की दृष्टि, आत्मत्व की अनुभूति । आचार का अन्तिम लक्ष्य है -आत्म-स्वरूप मे अवस्थित होना, समस्त कर्मों से मुक्त हो आत्मा के चैतन्य स्वरूप मे रमण करना, मोक्ष को प्राप्त करना। इनकी सिद्धि के लिए वे पाच महानतात्मक आचार को स्वीकार करते हैं।' पांच महावत १ अहिंसा महाव्रत-मानसिक, वाचिक और कायिक अहिंसा का पालन करना । अहिंसा का फलित है-समता और मैत्री। अहिंसा का सीधा अर्थ है सब प्राणियो के प्रति सयम । जीव-जन्तु, पशु-पक्षी और मानव की १ दसवेआलिय, अ० ६

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