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नैन मुनि की आचार-सहिता
१३५ १ ईर्या-समिति-गमन योग, युग-प्रमित भूमि को देखकर चलना । २ भाषा-समिति-वचन-योग, विवेकपूर्वक निरवध भाषा बोलना।
३ एषणा-समिति-निर्दोष-भिक्षा का ग्रहण तथा अनासक्त भाव से आहार करना।
४ आदान-निक्षेप-समिति-उपकरणो को लेने व रखने में सावधानी रखना ।
५ उत्सर्ग-समिति-उत्सर्ग-विधि मे विवेक रखना।
मनुष्य की जीवन-यात्रा के मुख्य पाच व्यवहार हैं-चलना, बोलना, खाना, वस्तुओ का उपयोग करना और उत्सर्ग करना। इन प्रवृत्तियो के आधार पर व्यक्ति के अन्तरग और बाह्य व्यक्तित्व को परखा जा सकता है। एक मुनि की जीवन-शैली गहस्थ की जीवन-शैली से सर्वथा भिन्न होनी चाहिए। समितिया उसके आध्यात्मिक व्यक्तित्व का पेरामीटर बन सकती हैं।
साधना की दृष्टि मे सम्यक् प्रवृत्ति ही पर्याप्त नहीं है, उसकी तेजस्विता और प्रभावोत्पादकता के लिए निवृत्ति का मूल्य भी कम नही है । जैन साधना मूलत निवृत्ति प्रधान है । निर्वाण-प्रधान है । उसके लिए त्रिगुप्ति की साधना आवश्यक है । गुप्ति का अर्थ है-सत् और असत-दोनो प्रकार की प्रवृत्ति का निरोध । तीन गुप्तिया ये हैं
(१) मनगुप्ति-मानसिक प्रवृत्तियो का सयम या निरोध । (२) वचनगुप्ति-वाणी का सयम या निरोध । (३) कायगुप्ति-कायिक चेष्टाओ का सयम या निरोध ।
प्रत्येक जैन मुनि के लिए पाच महाव्रत, पाच समिति और तीन गुप्ति- इन तेरह नियमो का पालन करना अनिवार्य है। इन तेरह नियमों के आधार पर अन्य भी अनेक प्रकार के नियमो-उपनियमो का विकास हुआ है।
जैन धर्म के महान् प्रवक्ता आचार्य प्रवर के मुह से जैन मुनियों के माचार के विषय मे विस्तार से जानकारी प्राप्त कर श्रोताओं ने कृतार्थता का अनुभव किया। जैन-श्रमणो की तपस्विता और आचार-निष्ठा के प्रति उनके मन मे आस्था का भाव जागा। उनका माथा अनायास झुक गया उनके अलौकिक त्याग के प्रति । उनके जिज्ञासु भाव ने अध्यात्म के सुमेरु जैनाचार्य से बरावर सपर्क बनाए रखने को विवश किया। इस दौरान जैन मुनि के आचार की अनेक वारी किया श्रति के वातायन से उनकी चेतना के लोक मे प्रविष्ट हुई। जैसे
जैन मुनि अनगार होते हैं। उनका अपना कही मकान नहीं होता।