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जैनधर्म जीवन और जगत्
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इन व्रत का आधार कोरा सिद्धान्तवाद या आदर्शवाद नही है, अपितु ये व्यवहार की उर्वरा मे पल्लवित हुए हैं । ये सामाजिक जीवन की उच्चता और वैयक्तिक पवित्रता का स्थिर आधार प्रस्तुत करते हैं । आतरिक पवित्रता के साथ व्यवहार-शुद्धि भी इन व्रतो से फलित होती है ।
ध्यान शतक मे लिखा है - " तम्हा आराहए दुवे लोए" धार्मिक व्यक्ति धर्म के द्वारा वर्तमान जीवन ओर भावी जीवन दोनो की आराधना करता है । धर्म का पारलौकिक फल है- स्वर्ग या मोक्ष तथा इहलौकिक फल है - कषाय- मुक्ति, व्यवहार-शुद्धि |
जैन जीवन - प्रणाली का फलित है -- जैन श्रावक धर्म की आराधना करता हुआ, पारिवारिक, सामाजिक और राजनैतिक जिम्मेदारियो से विमुख नही हो सकता, पर उन भूमिकाओ की शुद्धि के साथ आत्महित की सुरक्षा करना वह अपना परम कर्त्तव्य मानता है ।
वह अपनी अन्तश्चेतना से इतना जुड जाता है कि बाहर से लिप्त नही होता । व्यवहार मे जीता हुआ भी वह अपने केन्द्र चेतना को विस्मृत नही करता ।