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जैनधर्म : जीवन और जगत्
जाता है । सयम ही धर्म है, सयम ही अध्यात्म है । व्यक्ति किसी भी कार्यक्षेत्र, परिस्थिति, सम्प्रदाय और परिवेश में रहता हुआ धर्म की साधना कर सकता है । इस क्षेत्र में किसी भी प्रकार की प्रतिबद्धता नहीं है। भगवान् महावीर ने मुनिजनो के लिए आचार-सहिता का निर्धारण किया तो सद्गृहस्थो के लिए भी एक उन्नत जीवन-प्रणाली प्रस्तुत की, उसकी व्यवस्थित विधि बताई।
धर्म के क्षेत्र मे यह जैन-धर्म की सर्वथा मौलिक और अद्भुत देन है। गृहस्थ साधक की आचार-सहिता और उसका साधना-क्रम, जैन-परम्परा मे जितना सुन्दर और व्यवस्थित मिलता है, उतना अन्यत्र दुर्लभ है।
जैन-धर्म मे मुनि के लिए पाच महाव्रतो तथा गृहस्थ साधक के लिए पाच अणुव्रतो के पालन का विधान है।
महावतात्मको धर्मोऽनगाराणा च जायते ।
अणुव्रतात्मको धर्मो, जायते गृहमेधिनाम् संबोधि ॥ १४/४० अणुव्रत
अणुव्रत का अर्थ है-छोटे-छोटे व्रत या यथाशक्ति गृहीत व्रत । अणुव्रत पाच हैं
१. अहिंसा-अणुव्रत-स्थूल हिंसा का परित्याग ।
गृहस्थ के लिए आरम्भजा- कृषि, वाणिज्य आदि मे होने वाली हिंसा से बचना कठिन होता है। उस पर कूटम्ब, समाज और राज्य का दायित्व होता है, इसलिए सापराध या विरोधी हिंसा से बचना भी उसके लिए कठिन होता है । गृहस्थी को चलाने के लिए उसे वध-बन्धन आदि का सहारा भी लेना पडता है, इसलिए सापेक्ष हिंसा से भी वह नहीं बच सकता। वह पारिवारिक, सामाजिक दायित्वो को वहन करते हुए केवल सकल्पपूर्वक निरपराध प्राणियो की निरपेक्ष हिंसा से बचता है, यही उसका अहिंसा यणुव्रत है।
२ सत्य-अणुव्रत- स्थूल असत्य का परित्याग ।
गृहस्थ के लिए सपूर्ण असत्य को त्यागना कठिन है, किन्तु वह ऐसे असत्य का सहारा न ले जिससे किसी निर्दोष प्राणी को सकटग्रस्त होना पड़े।
३. अस्तेय-अणुव्रत-गृहस्थ के लिए छोटी-वडी सभी प्रकार की चोरी मे बवना कठिन है, परन्तु वह कम से कम ऐसी चोरी न करे, जिससे राज्य दण्ड दे और लोक निंदा करे । डाका डालना, ताला तोडकर चोरी करना, वैयक्तिक या सरकारी सपत्ति को लूटना--ये सब सद्गृहस्थ के लिए वर्जनीय