Book Title: Jain Dharm Jivan aur Jagat
Author(s): Kanakshreeji
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 145
________________ जैन गृहस्थ की आवार-सहिता १२७ ४ ब्रह्मचर्य-अणुव्रत--गृहस्थ के लिए पूर्ण ब्रह्मचारी रहना कठिन है, पर एक सीमा तक वासना पर नियन्त्रण स्थापित करना भी आवश्यक है। परस्त्री-गमन, वेश्यागमन आदि अवाछनीय प्रवृत्तिया हैं। सद्गृहस्थ उनसे चचे और स्वदार-सतोप व्रत का पालन करे। वर्तमान के सदर्भ मे जहाँ 'एड्स' जैसा घातक रोग एक विभीपिका पैदा कर रहा है, ब्रह्मचर्य अणुव्रत या मूल्य वढ़ गया है। ५ अपरिग्रह अणवत-गृहस्थ सर्वथा परिग्रह का त्याग नहीं कर सकता, पर इच्छाओ के असीमित विस्तार का नियमन कर वह परिग्रह की सीमा कर सकता है । अति संग्रह की मनोवृत्ति सामाजिक विषमता को जन्म देती है, अत अपरिग्रह अणुन त सामाजिक स्वस्थता के लिए भी जरूरी गुणवत जो व्रत गृहस्थ की वाह्य-चर्या को सयमित करते हैं, उन्हे गुणव्रत कहा जाता है । वे तीन हैं१ दिग्विरति-पूर्व, पश्चिम आदि दिशाओ मे गमनागमन की सीमा का निर्धारण । २. उपमोग परिमोग-परिमाण व्रत-व्यक्तिगत भोग-सामग्री का परिमाण करना। ३. अनर्व-दण्ड विरति-विना प्रयोजन हिमा का त्याग करना । ये तीनो व्रत अणुव्रत भावना को पुष्ट करते हैं इसलिए भी ये गुणव्रत कहलाते हैं। शिक्षावत जो प्रत अभ्यास-साध्य होते हैं और आतरिक पवित्रता बढाते हैं, उन्हे शिक्षाग्रत कहा जाता है । वे चार हैं१ सामायिफ-असत्प्रवृत्ति से विरत होकर समता का अभ्यास करना। २ देशावकाशिफयत-एक निश्चित अवधि के लिए विधिपूर्वक हिंसा का त्याग करना । ३ पौषध-उपवासपूर्वक असत्प्रवृत्ति का त्याग करना । ४ अतिथि-स विभाग-अपना विसजन कर पाय को दान देना। इन व्रतो का पालन करने वाला जन धावक या उपासक कहलाता है । ये न शांत, सुपी, मममी और सात्विक जीवन के प्रेरक हैं। भारतीय संस्कृति में माधु-सस्था को अतिरिक्त प्रतिष्ठा है । उसे कची निगाहो से देखा जाता है । सतो के प्रति जनता मे सहज पूज्य भाव है। इस

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