________________
नन गृहस्थ की आचार-सहिता
१२९ ५. अपरिग्रह का फलित -अपरिग्रह का साधक अति साह नही
करता, अनावश्यक सग्रह नहीं करता, शोषण नही करता, किसी के अधिकारी
का हनन नही करता। गहम्यो के रय के दो पहिए हैं –हिंसा और परिग्रह । गृहस्थ साधक इनमे सर्वथा उपरत नहीं हो सकता। फिर भी इनकी गति अनियन्त्रित और निरकुश न हो, इस दृष्टि से भगवान् महावीर ने ये दो सूत्र दिए
१. अनर्थ हिंसा से बचाव । २ इच्छाओ का अल्पीकरण । ये सूत्र जैन जीवन-प्रणाली के रूप में विकसित हुए ।
यह एक सद्गृहस्थ की पहचान बन गई। जैसे महात्मा गाधी ने अति सग्रह या पूजीवाद मे उत्पन्न समस्याओ के समाधान हेतु विकेन्द्रित अर्थम्यवस्था का सूत्र दिया दृस्टीशिप की नई दृष्टि दी वैसे ही भगवान् महावीर ने उपभोग-परिभोग-विरति प्रत और इच्छा परिमाण व्रत के माध्यम से व्यक्तिगत भोग-सामग्री के सयम की तथा इच्छा-सयम की प्रेरणा दी, ये सामाजिक परिवर्तन एव आर्थिक स्रोतो की शुद्धि की दृष्टि से बहुत ही मूल्यवान हैं।
एक पावक न केवल आध्यात्मिक होता है और न केवल सामाजिक । यह दोनों भूमिकाओ मे सामजस्य स्थापित कर चलता है।
द्विविधो गहिणां धर्मो आत्मिको लोकिफस्तया ।
सबरो निजरा पूर्व समाजामिमतो परः॥
गृहस्थ धर्म दो प्रकार का है-~-आत्मिक और लौकिक । आत्मिक धर्म है सवर और निर्जरा । समाज द्वारा अभिमत धर्म लौकिक कहा जाता
आत्मिक धर्म का उद्देश्य है-आत्मशुद्धि । वह महतो द्वारा प्रतिपादित
लोपिक धर्म का उद्देश्य है समाज की सुव्यवस्था। उसका प्रवर्तन समाज-शास्त्रियो द्वारा होता है। फिर भी अध्यात्म सामाजिकता का विरोधी नही है । यह उमे स्वस्थता प्रदान करता है ।
इन प्रनो का उद्दश्य है - व्यक्ति पर-परिवार में रहता हा भी धेठ धामिर जीवन जी सरे तथा उन क्षमताओ का बजन कर सके, जिससे अध्यात्म पीकचाई को आ ग मरे । स्वम्य और संतुलित समाज पी सरचना में भी न प्रनो यी भूमिका महन्वपूर्ण है। हिमा, सग्रह और भोग पो अनि नामाजिव दिपमता और शांति वो जन्म देती है । उक्त व्रतों की भापना मे न लिप ममम्याओ का समाधान निहित है।