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रत्नत्रयी : जैन साधना का आधार
दुनिया मे सर्वोत्कृष्ट वस्तु को रत्न कहा जाता है । पौराणिक युग मे देवो और दानवो ने मिलकर समुद्र-मथन किया। चौदह रत्न निकले। उनसे देवो और दानवो को सतुष्ट किया गया।
अध्यात्म के यात्रियो ने अर्हत-वाणी के आलोक मे आत्म-मथन किया, उससे उन्हे तीन रत्न मिले। उन तीन रत्नो के आधार पर प्रकाश, आनन्द तथा शक्ति के स्रोतो की खोज की।
नीतिकारो ने लोक भापा मे कहा-"पृथ्वी पर तीन ही रत्न - हैं अन्न, जल और सुभाषित। वे मूढ हैं, जो पत्थर के टुकडो को रत्न कहते
भगवान् महावीर ने कहा-"धर्म के क्षेत्र मे तीन ही रत्न हैंसम्यग् ज्ञान, सम्यग-दर्शन और सम्यक्-चारित्र । वे मूढ हैं, जो विभिन्न प्रकार के क्रिया-काडो मे दुख-मुक्ति के दर्शन करते हैं।"
पहले प्रकार के रत्न लौकिक हैं और दूसरे प्रकार के लोकोत्तर । लौकिक बाह्य समृद्धि के सूचक हैं । लोकोत्तर रत्न आतरिक समृद्धि के प्रतीक
धर्म के क्षेत्र मे दो धाराए प्रवाहित हैं -प्रवर्तक धर्म और निवर्तक धर्म । यज्ञ-याग पूजा-पाठ आदि कर्म-काडो को प्रमुखता देने वाले धार्मिक प्रवृत्तिमार्गी कहलाते हैं। बाहरी क्रियाकाडो मे न उलझकर मात्र आत्मोपलब्धि या आत्मशुद्धि के लिए प्रयत्नशील धार्मिक निवृत्तिमार्गी कहलाते हैं।
वैदिक धर्म प्रवर्तक धर्म है। उसका लक्ष्य है-स्वर्ग-प्राप्ति । "स्व. कामो यजेत"-स्वर्ग प्राप्ति की कामना से यज्ञ करो। जैन धर्म निवृत्तिप्रधान है । उसका लक्ष्य है-निर्वाण । निर्वाणवादी धारा के पुरस्कर्ता थेभगवान महावीर-- "णिव्वाणवादी इह णायपुत्ते ।"
निर्वाण का अर्थ है परम शान्ति-मोक्ष की प्राप्ति । उसके उपाय हैं-सम्यक् ज्ञान, सम्यक् दर्शन और सम्यक् चारित्र । ये मुक्ति के सर्वोत्तम उपाय हैं, इसलिए रत्न कहलाते हैं। इनका समन्वित नाम है- रत्नत्रयी। जैन-धर्म मे रत्नत्रयी का बहुत बड़ा स्थान है। क्योकि जन-धर्म लोकोत्तर धर्म है । जैन-दर्शन मोक्ष-दर्शन है । मोक्ष-प्राप्ति का पहला सूट है-सम्यक् दर्शन, दूसरा सूत्र है सम्यक् ज्ञान और तीसरा सूत्र है सम्यग्-चारित्र । यह त्रिपदी ही मोक्ष-पदी है।