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जैनधर्म जीवन और जगत्
चेतना जागती है । वस्तु को यथार्थ दृष्टि से देखने-परखने की शक्ति विकसित होती है । चेतन-अचेतन, हेय-उपादेय, सत्य-असत्य तथा करणीयअकरणीय का स्पष्ट बोध होने लगता है। इसी का नाम है-सम्यग-दर्शन ।
सम्यक् दर्शन की व्यावहारिक परिभाषा है- यथार्थदृष्टि सम्यग् दर्शनम् – इसका तात्पर्य है- तात्त्विक तथ्यो और नौ तत्त्वो पर असा होना । निश्चय की भापा मे सम्यग् दर्शन का अर्थ है-आत्मा का निश्चय होना। "दर्शन निश्चय पसि" जो आत्मदर्शी होता है वह सम्यग्दर्शी होता है और जो सम्यग्दर्शी होता है वह आत्मदर्शी होता है ।
कुछ व्यक्ति धर्म के प्रति मूढ होते है, कुछ ध्येय के प्रति मूढ होते हैं तो कुछ आराध्य के प्रति भगवान के प्रति मूढ होते हैं । दृष्टि-सम्पन्नता मे सभी प्रकार की मूढताए समाप्त हो जाती हैं, मूर्छा का वलय टूट जाता
सम्यक् द्रष्टा का ध्येय होता है-आत्म-साक्षात्कार । उसका धर्म होता है-आत्म-रमण और उसका आराध्य या भगवान होता है-वीतराग आत्मा।
सम्यक् दृष्टि के जागरण की पहचान है० शम-अन्तर आवेगो की शान्ति ० सवेग-मुमुक्षा ० निर्वेद-अनासक्ति ० अनुकम्पा-करुणा ० आस्तिक्य-सत्यनिष्ठा ।
रत्नत्रयी मे सम्यक् दर्शन का स्थान पहला है, क्योकि सम्यक् दर्शन के बिना ज्ञान सम्यक् नही होता । जहा दर्शन मिथ्या है वहा ज्ञान भी अज्ञान कहलाता है । जहा दर्शन सम्यक् है वहा ज्ञान भी सम्यक् है । दर्शन सम्यक वनते ही ज्ञान सम्यक् बन जाता है ।
"सम्यक श्रद्धा भवेत्तत्र सम्यग ज्ञान प्रजायते । सम्यक् चारित्र-सप्राप्तेर्योग्यता तत्र जायते ॥" (संबोधि १४/८)
दर्शन-विहीन व्यक्ति ज्ञान को उपलब्ध नहीं होता । ज्ञान के बिना चारित्र-गुण प्रकट नहीं होते । चारित्र के बिना निर्वाण नही होता । सम्यक-ज्ञान
"यथार्थबोध सम्यग्-ज्ञानम् ॥" यथार्थ बोध को सम्यक् ज्ञान कहते हैं । ज्ञान का काम है जानना । पर ज्ञान का उद्देश्य मात्र पदार्थों को जानना ही नही है। उसका मूल उद्देश्य है स्वय को जानना । भ० महावीर ने कहा