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जैनधर्म मे जातिवाद का आधार
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मौर अन्तर्राष्ट्रीय चेतना को प्रभावित कर रहे हैं। विश्व-मानव की सुखद परिकल्पना कर मनुष्य-मनुष्य के बीच एकता का सेतु स्थापित कर रही है, वहा लगता है साम्प्रदायिकता, जातीयता, प्रान्तीयता मादि दूरी के विन्ध्याचल बन कर मनुष्य-मनुष्य के बीच खडे हो गये हैं । जातीयता का यक्ष मानव-मन की धरती पर घणा के विष-बीज बो रहा है । लगता है। सैद्धातिक स्तर पर जाति को अतात्विक मानने वाला जैन-समाज भी जातिवाद की लोह-शृखला से मुक्त नहीं है । अपेक्षा है वर्तमान के सदर्भ मे जन-समाज अपने पवित्र सिद्धातो की स्मृति करता हुआ अपने व्यवहारो को परिवर्तित करे।
अणुव्रत अनुशास्ता सत श्री तुलसी "अणुव्रत" के माध्यम से इस दिशा मे वर्षों से भगीरथ प्रयत्न कर रहे हैं। अणव्रत विचार दर्शन ने समाज की धरती पर एकता और समानता की धाराए प्रवाहित की हैं । जातिवाद के आधार पर पनपी कच-नीच और छूआ-छूत की धारणाओ को तोडा है । पर आने वाले युग की चुनौतियो को देखते हुए जैन समाज को इस दिशा मे काफी प्रयत्न करना है।
अणवत के एक व्रत का भी यदि सकल्पित होकर अनुशीलन किया जाए तो जन-समाज का यह क्रातिकारी कदम समग्र मनुष्य जाति के लिए वरदायी सिद्ध हो सकता है । वह व्रत है
'मैं जाति के आधार पर किसी को अस्पृश्य नही मानगा। मैं जाति के आधार किसी को ऊच-नीच नही मानगा, घृणा नही फैलाऊगा।