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जैन-धर्म में कर्मवाद
भगवान् श्री महावीर ने कहा-"जो व्यक्ति सब भूतो को अपने समान समझता है, सब प्राणियो को समान दृष्टि से देखता है, आस्रवो का निरोध करता है और अपना निग्रह करता है, वह पाप कर्मों का बन्ध नहीं करता (दसवेआलिय ४/९) । इससे दो बातें फलित होती हैं-सब आत्माओ की समानता और कर्मों का बन्ध ।
आत्म-समानता और आत्म-एकत्व के स्वर जैन आगमो मे प्रचुर मात्रा मे मुखरित हुए हैं । जैसे "तू जिसे मारना चाहता है, वह तू ही है। कोई प्राणी हीन नही है, अतिरिक्त नहीं है । न कोई छोटा है, न कोई बडा-- इत्यादि ।" (आयारो)
___ इसके विपरित हम यह भी प्रत्यक्ष देखते हैं कि सब जीव समान नही हैं । कोई एक इन्द्रिय वाला प्राणी है तो कोई पाच इन्द्रिय वाला । कोई समनस्क-सन्नी है तो कोई अमनस्क असन्नी। एक बहुत विकसित है तो दूसरा कम विकसित । एक बुद्धिमान है तो दूसरा मूढ । एक सच्चरित्र है तो दूसरा दुश्चरित्र । एक स्वस्थ है तो दूसरा अस्वस्थ । एक सुन्दर, सुप्रतिष्ठित और यशस्वी है तो दूसरा कुरूप, तिरष्कृत तथा निन्दनीय । एक सामर्थ्यवान है तो दूसरा असमर्थ । यह असमानता क्यो ? इसका समाधान दिया गया कि निश्चय नय से सब जीवन समान होते हुए भी व्यवहार नय से वे भिन्न भी हैं।
प्रत्येक आत्मा की समानता स्वभावगत है । स्वरूप की दृष्टि से, अस्तित्व की दष्टि से सब आत्माए समान हैं।
आत्माओ की विविधता का हेतु कर्म है। प्राणी जैसा कर्म करता है, वैसा ही बनता है । हीन कर्म प्राणी को हीन बनाता है । श्रेष्ठ कर्म प्राणी को श्रेष्ठ बनाता है।
भगवती सूत्र में एक सवाद है-गौतम ने भगवान महावीर से पूछा"भते । यह विभक्ति कहा से हो रही है ? यह भेद, विभाजन, अलगाव कहा से हो रहा है ? भगवान् ने कहा--गौतम | यह सारी विभक्ति कर्म के द्वारा हो रही है । सारी भेद-रेखाए कर्म के द्वारा खीची जा रही है।"
बौद्ध-धर्म के प्रसिद्ध ग्रन्थ "अभिधम्मकोश" मे लिखा है-"कर्मज लोकवचिन्य-लोक की विचित्रता कर्म के द्वारा होती है।"
प्रश्न होता है कि कर्म क्या है ? वह आत्मा को प्रभावित कैसे करता