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जैनधर्म : जीवन और जगत्
क्योकि उसमे कार्यशील पुद्गल परमाणु सपूर्णत नष्ट नही होते । दीपक के तेल और वाती जलते हैं, वे धूम तथा गैस मे परिणत हो जाते हैं, अत उनका स्वरूप परिवर्तन अवश्य होता है, पर विलयन नही।
आकाश, जो साधारणतया नित्य प्रतीत होता है, वह भी कथचित अनित्य भी है। उन्मुक्त आकाश जब घेरे मे बन्द हो जाता है तो उसकी अवस्थिति में परिवर्तन हो जाता है। यह परिवर्तन ही अनित्यता का ससूचक है। यह निश्चित है कि स्थायित्व के बिना परिवर्तन आधारशून्य है और परिवर्तन के बिना स्थायित्व मूल्यहीन । कोई भी पदार्थ स्थायित्व और परिवर्तन की रेखा का अतिक्रमण नही कर सकता। आम को निचोडकर रस बना लिया गया। हमारी आखो के सामने अब वह आम का फल नही है । रस, जो पहले दृष्टिगोचर नही था, हमारे सामने है, पर उसमे आम्रत्व वही है । उसे हम नारगी का रस नही कहेगे ।
जहा तक चिन्तन और मान्यता का प्रश्न है, अनेकान्त दष्टि हमारा पथ प्रशस्त कर देती है । पदार्थ अनन्त हैं और उन्हे जानने के लिए दृष्टिया भी अनन्त हैं। पर अभिव्यक्ति का साधन तो एक भाषा ही है। वह भी इतनी लचीली और दुर्बल कि उसके द्वारा हम एक क्षण मे वस्तु के एक धर्म का ही प्रतिपादन कर सकते हैं। इसका अर्थ होता है-- एक वस्तु का प्रतिपादन करने के लिए अनन्त शब्द चाहिए । और वैसे अनन्त-अनन्त पदार्थों के लिए अनन्त-अनन्त शब्द चाहिए। उनके लिए जीवन भी अनन्त चाहिए, पर यह सभव नही । अत हम इस निष्कर्ष तक पहुंचते हैं कि भाषा के सहारे हम न तो वस्तु का सपूर्ण परिज्ञान ही कर सकते हैं और न ही अभिव्यक्ति । लेकिन जैन तीर्थंकरो ने भाषा के भडार को एक ऐसा रत्न प्रदान किया, जिसके प्रभा-म डल से समूचा भाषा-भडार जगमगा उठा। वह शब्द रत्न है 'स्यात्' । यह इतना सक्षम है कि जिस वस्तु के साथ इसे जोड़ दिया जाए, उस वस्तु के समग्र रूप को अभिव्यक्त करने का अपना दायित्व वह बहुत ही जागरूकता से निभाता है। यह भाषा-जगत का प्राण है। इसके अभाव में भापा अपने दायित्व का निर्वाह कर ही नही पाती । यह अखड सत्य के प्रतिपादन का माध्यम है । यह एक ऐसा दर्पण है, जिसमे वस्तु के सभी रूप एक माय प्रतिबिम्बित हो सकते हैं। यह वस्तु के किसी एक धर्म का मुख्यतया प्रतिपादन करता हुआ भी उसके शेष अनन्त धर्मों को आखो मे ओझल नहीं पसरता।
जाचार्य श्री तुलसी ने श्री "भिक्षु न्यायकणिका" मे स्याद्वाद की मरन और मुगम परिभाषा देते हुए लिखा है
अपंणानपंणाभ्यामनेकान्तात्मकार्यप्रतिपादनपद्धतिः स्यावाद । अनेक वर्मात्मक वस्तु का एक ममय मे, एक धर्म की प्रधानता