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जैनधर्म जीवन और जन
है कि पहला व्यक्ति नल का गर्म पानी पीकर आया है, उसे घडे का प ठडा लग रहा है और जो वर्फ खाकर आया है उसे यही पानी गर्म लग' है । यह है अवस्था-भेद से सवेदन की भिन्नता ।
एक फूल है। कोई व्यक्ति उसके रूप पर निछावर हो जाता है कोई मादकता भरी महक से उन्मत्त । चिन्ताओ मे डूबा किसी का मन विह फूलो को देख प्रसन्नता से भर उठता है तो किसी की वासना उभर जाती कुछ व्यक्ति फूलो की सुगधि और कोमल सस्पर्श के सुख-भोग मे लीन र हैं, वहा कुछ समय-समय पर सरसाये मुरझाये फूलो मे पोद्गलिक सुखो अनित्यता का बोध कर विरक्त भी हो जाते हैं। यदि वस्तु एक धर्मात्मक होती तो अलग-अलग परिस्थितियो मे उसका प्रभाव एक-सा ही होता। नहीं होता।
हम विद्युत् के युग मे जी रहे हैं, घर-परिवारो मे बहुत-सी प्रवृत्ति बिजली के आधार पर चलती हैं। विजली के उपयोग हेतु तार फिट f जाते हैं। उनमे विद्युत् की धारा प्रवाहित होती है। उससे पखा चलता बल्ब जलता है, भोजन पकता है, रेडियो बजता है, टी०वी० चलता टेलीफोन पर बातचीत होती है. मकान वातानुकूलित बनता है । इस प्रक अनेक रूपो मे मनुष्य विद्युत् शक्ति का उपयोग करता है। जैसा कि ह जाना सभी तारो मे एक ही विजली का प्रवाह है फिर भी पखे मे उस चालक गुण, बल्ब मे प्रकाशक गुण, सिगडी मे दाहक गुण, रेडियो/टेलीप मे ध्वनि-सप्रेषक गुण क्रियाशील है। जो वटन दबाया जाता है, वही प्रकट हो जाता है। इससे स्पष्ट हो जाता है कि विद्युत् मे अनेक गुण-' विद्यमान हैं । यहा यह भी ज्ञातव्य है कि उसके अन्यान्य गुण विभिन्न नि पाकर ही उभरते हैं । बल्ब मे उसका प्रकाशक गुण ही कार्य करता है, न दाहक गुण । पर इतने मात्र से हम उसके दाहक गुण को नकार नहीं सक हा, प्रकाशक गण के उभरते ही शेष धर्म अप्रधान बनकर उसका अनुग करने लग जाते हैं। गति के लिए यह अनिवार्य भी है। एक पैर जब बढता है तो दूसरा अपने आप पीछे हट जाता है। यह गति मे बाधा न प्रेरणा है-यदि एक पैर पीछे हटने से इन्कार कर दे तो बड़ी मुश्किल जाए।
इस प्रकार अनेकात और स्याद्वाद के माध्यम से हम पदार्थ का सम्य बोध और सम्यक्-प्रतिपादन कर सकते हैं। इसकी उपादेयता केवल व जगत् तक ही परिसीमित नही है। हमारे जीवन का प्रत्येक पहलू इ सस्पृष्ट तथा उजागर है ।
__ हमारा जीवन एकता और विविधता का योग है। मनुष्य-मनुष्य है, यह समानता की अनुभूति समूची मानव-जाति को एकत्व के सूत्र मे पि