Book Title: Jain Dharm Jivan aur Jagat
Author(s): Kanakshreeji
Publisher: Jain Vishva Bharati

View full book text
Previous | Next

Page 134
________________ ११६ जैनधर्म जीवन और जगत् वैदिक परम्परा मे निर्धारित चातुर्वर्ण्य-व्यवस्था का मूल आधार भी बुद्धि, पराक्रम, विनिमय और सेवा ही रहा है। ब्रह्मा के मुख भुजा उदर और पैरो से उत्पन्न होने की जो बात कही गई है वह भी प्रतीकात्मक ही है । मुख बुद्धि का, भुजा पराक्रम का, पेट व्यवसाय-विनिमय का, पैर गतिशीलता-सेवा का प्रतीक है । जहा समाज अथवा राज्य-सचालन का प्रश्न होता है, वहा व्यवस्थाए आवश्यक हैं । जहा व्यवस्था है, वहा वर्गीकरण भी जरूरी है। समाज के लिए बुद्धि, पराक्रम, व्यवसाय-कौशल और सेवा मे से किसी एक तत्त्व को भी उपेक्षित नही किया जा सकता। समस्या तव उभरती है, जब किसी भी प्रवृत्ति का उद्देश्य और मूल रूप ओझन हो जाता है तथा दूसरा पक्ष उभर कर सामने आ जाता है । काण्ट ने सामाजिकता की दृष्टि से व्यक्तियो को तीन वर्गों में बाटा १ बुद्धि प्रधान २ साहस प्रधान और ३ वासना प्रधान-सब की वासना-इच्छा की आपूर्ति करने वाला वर्ग । यह वर्गीकरण जैन चिन्तन के अधिक निकट है, अनुकूल है। , सामान्यत हर व्यक्ति मे तीनो शक्तिया होती हैं। किन्तु सब मे सब प्रकार की शक्तियो का विकास समान नही होता। जिसमे जिस शक्ति का विशिष्ट विकास होता है वह व्यक्ति उस वर्ग के साथ जुड जाता है। पर एक वर्ग के व्यक्तियो मे अमुक शक्ति का विकास होता ही है, यह जरूरी नही है। ब्राह्मणो मे भी अपढ़ -अविद्यावान हो सकते हैं। क्षत्रिय जाति में भी कोई भीरू हो सकता है। वैश्य परिवार मे जन्म लेने वालो मे भी सबको व्यावसायिक-बुद्धि, वाणिज्य-कौशल उपलब्ध हो, यह आवश्यक नहीं है। शिल्प और सेवा-कार्य भी किसी की नियति नही हो सकती। इसीलिए जैनचिन्तको ने कहा -जाति तात्विक नही है । मौलिक नही है। जाति-व्यवस्था मनुष्य द्वारा कृत है। समाज की उपयोगिता है। वह व्यक्ति की कमजा शक्ति के साथ जुडी हुई है। काय-परिवर्तन के साथ ही जातिगत मान्यता परिवतित हो जाती है। इस प्रसग मे आचार्य कृपलानी का उदाहरण बहुत ही प्रेरक हो सकता है । एक बार वे ट्रन से यात्रा कर रहे थे। बगल की सीट पर बैठ सज्जन ने पूछा--"आप किस कौम के हैं ?" कृपलानो मौन रहे। दूसरी-तीसरी बार पूछने पर बोले – “भाई । मैं किसी एक कोम का होऊ तो बालू । देखो; सुबह-सुबह अपनी साफ-सफाई करता हूं, इसलिए हरिजन हूँ।

Loading...

Page Navigation
1 ... 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 153 154 155 156 157 158 159 160 161 162 163 164 165 166 167 168 169 170 171 172 173 174 175 176 177 178 179 180 181 182 183 184 185 186 187 188 189 190 191 192