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जैनधर्म जीवन और जगत्
वैदिक परम्परा मे निर्धारित चातुर्वर्ण्य-व्यवस्था का मूल आधार भी बुद्धि, पराक्रम, विनिमय और सेवा ही रहा है। ब्रह्मा के मुख भुजा उदर और पैरो से उत्पन्न होने की जो बात कही गई है वह भी प्रतीकात्मक ही है । मुख बुद्धि का, भुजा पराक्रम का, पेट व्यवसाय-विनिमय का, पैर गतिशीलता-सेवा का प्रतीक है ।
जहा समाज अथवा राज्य-सचालन का प्रश्न होता है, वहा व्यवस्थाए आवश्यक हैं । जहा व्यवस्था है, वहा वर्गीकरण भी जरूरी है।
समाज के लिए बुद्धि, पराक्रम, व्यवसाय-कौशल और सेवा मे से किसी एक तत्त्व को भी उपेक्षित नही किया जा सकता। समस्या तव उभरती है, जब किसी भी प्रवृत्ति का उद्देश्य और मूल रूप ओझन हो जाता है तथा दूसरा पक्ष उभर कर सामने आ जाता है ।
काण्ट ने सामाजिकता की दृष्टि से व्यक्तियो को तीन वर्गों में बाटा
१ बुद्धि प्रधान २ साहस प्रधान और
३ वासना प्रधान-सब की वासना-इच्छा की आपूर्ति करने वाला वर्ग ।
यह वर्गीकरण जैन चिन्तन के अधिक निकट है, अनुकूल है। , सामान्यत हर व्यक्ति मे तीनो शक्तिया होती हैं। किन्तु सब मे सब प्रकार की शक्तियो का विकास समान नही होता। जिसमे जिस शक्ति का विशिष्ट विकास होता है वह व्यक्ति उस वर्ग के साथ जुड जाता है। पर एक वर्ग के व्यक्तियो मे अमुक शक्ति का विकास होता ही है, यह जरूरी नही है।
ब्राह्मणो मे भी अपढ़ -अविद्यावान हो सकते हैं। क्षत्रिय जाति में भी कोई भीरू हो सकता है। वैश्य परिवार मे जन्म लेने वालो मे भी सबको व्यावसायिक-बुद्धि, वाणिज्य-कौशल उपलब्ध हो, यह आवश्यक नहीं है। शिल्प और सेवा-कार्य भी किसी की नियति नही हो सकती। इसीलिए जैनचिन्तको ने कहा -जाति तात्विक नही है । मौलिक नही है। जाति-व्यवस्था मनुष्य द्वारा कृत है। समाज की उपयोगिता है। वह व्यक्ति की कमजा शक्ति के साथ जुडी हुई है। काय-परिवर्तन के साथ ही जातिगत मान्यता परिवतित हो जाती है।
इस प्रसग मे आचार्य कृपलानी का उदाहरण बहुत ही प्रेरक हो सकता है । एक बार वे ट्रन से यात्रा कर रहे थे। बगल की सीट पर बैठ सज्जन ने पूछा--"आप किस कौम के हैं ?" कृपलानो मौन रहे। दूसरी-तीसरी बार पूछने पर बोले – “भाई । मैं किसी एक कोम का होऊ तो बालू । देखो; सुबह-सुबह अपनी साफ-सफाई करता हूं, इसलिए हरिजन हूँ।