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जैनधर्म मे जातिवाद का आधार
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व्यक्ति भी तप साधना द्वारा श्रेष्ठना और पूज्यता को प्राप्त कर सकता है। इसके विपरीत उच्च कुल मे उत्पन्न होकर भी चरित्र-भ्रष्ट व्यक्ति उच्चता हासिल नही कर सकता। इसलिए जाति की दृष्टि से न कोई हीन है, न कोई अतिरिक्त है । न ऊचा है, न नीचा है ।
प्रश्न होता है -हिन्दुस्तान मे जाति का विभाजन कब और क्यों हुआ ? तथा जातिवाद क्यो पनपा ?
जैन परम्परा के अनुसार पहले मनुष्य जाति एक थी। युग के आरभ मे जातियो की व्यवस्था नही थी। वह यौगलिक युग था। जनसख्या सीमित थी। जो भाई-बहन के रूप मे उत्पन्न होते पति-पत्नी बनकर एक साथ रहते ओर एक साथ ही मरते। उन्हें युगलचारी या यौगलिक कहा जाता था। यौगलिक युग पलटा । कर्म-युग का प्रवर्तन हुआ । भगवान् ऋषभ राजा बने । उन्होने मनुष्य-समाज को कुछ वर्गों में विभाजित कर दिया। मूल बात यह थी कि ऋषभ ने राज्य सचालन के लिए कुछ व्यवस्थाए दी थी। जहा व्यवस्था होती है, वहा विभाग आवश्यक होते हैं। विभाग का आधार हैसमाज की विभिन्न अपेक्षाए। उन्होने समाज को तीन विभागो मे बांटा१. पगम २ कौशल और ३ उत्पादन । इन तीनो के प्रतीक वने-असि, मसि और कृषि शब्द ।
__ जब जनसख्या बढी, कल्पवृक्ष घटे और लोगो की जरूरत बढ़ी तो ऋपभ ने निर्देश दिया-उत्पादन बढाओ और समाज की जरूरतों को पूरा करो। कृपि का विकास हुआ। कृषक-वर्ग उभरा।
उत्पादन के विनिमय-वितरण और निर्यात की व्यवस्था के लिए ऋपभ ने एक विभाग स्थापित किया। उसके आधार पर व्यवसाय-वाणिज्य-कौशल का विकास हुआ । वस्तु-विनिमय और वितरण मे दोनो पक्षो को न्याय मिले, लाभ मिले, सबकी आवश्यकताओ की पूर्ति उचित विनिमय के आधार पर हो, इस दृष्टि से व्यवस्थित हिसाब-किताव रखना भी आवश्यक समझा गया। उसका माध्यम था-लेखन । लिखने का प्रतीक शब्द बन गया। मसि-स्याही।
जहा विनिमय की बात होती है वहा सघर्ष की सभावनाए भी रहती हैं । हितो मे टकराव और आपाधापी की स्थिति उत्पन्न हो सकती है । ऋपभ ने सबके हितो के सरक्षण हेतु रक्षा-व्यवस्था दी। उसका प्रतीक बना असि शब्द । असि यानि तलवार हथियार का प्रतीक बन गया।
समाज की रक्षा वही कर सकता है जो पराक्रमी हो ।
वह पराक्रमी वर्ग क्षत्रिय कहलाया। इस प्रकार भगवान् ऋषभ ने उत्कालीन सामाजिक अपेक्षाओ के आधार पर समाज की सुविधा, विकास और सुरक्षा की दृष्टि से यह त्रिवेणी-व्यवस्था दी।