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जनदर्शन मे स्याद्वाद
रखती है । सबकी रुचिया, अपेक्षाए जीने की पद्धतिया और अपेक्षा-पूर्ति के स्रोत हैं भिन्न, अत वह विविध रूपो में विभक्त हो जाती है ।
व्यक्ति का जिसके साथ अधिक लगाव या ममत्व होता है, उसे वह महत्त्व देता है । फलत विभिन्न वर्ग, जाति, भाषा, सम्प्रदाय आदि की रेखाए उभर आती हैं। महत्त्व देना बुरा नही, यदि उससे दूसरो का महत्त्व और हित खण्डित न हो। समस्या यही प्रसूत होती है कि व्यक्ति 'स्व' को जितना महत्त्व देता है, 'पर' को उतना ही नकारने लग जाता है। यही से मानवीय एकता खण्डित होने लगती है। सघर्ष के ज्वालामुखी फूट पडते
एक परिवार मे अनेक सदस्य होते हैं। उन सबके हित, स्वार्थ, रुचिया और योग्यताए भिन्न होती हैं। इस स्थिति मे किसी एक के हितो, योग्यताओ आदि को महत्त्व व सम्मान देने पर परस्पर टकराव होता है और अलगाव की दीवारें खिंच जाती हैं। धीरे-धीरे वैमनस्य, घृणा और प्रतिहिंसा की भावनाए बलवती होती जाती हैं। सरस पारिवारिक जीवन मे विरसता का विष घुलने लग जाता है। इसके विपरीत यदि प्रत्येक सदस्य अपने हितों और भावनाओ को गौण कर दूसरे की भावनाओ और हितों को प्राथमिकता दे तो स्वय का हित विघटित कभी नही होता, वह अधिक सधता है और पारिवारिक जीवन मधुमय बन जाता है। निरपेक्ष व्यवहार जहा एकत्व में बिखराव पैदा करता है, वहा सापेक्ष व्यवहार विखरी हुई मणियो को सुन्दर माला का आकार प्रदान करता है। सापेक्ष दृष्टिकोण शान्त, सरस और सुखी जीवन का मूल मन्त्र है। दष्टि की एकागिता आग्रह को जन्म देती है। आग्रह हिमा है, जिसकी भूमिका मे वैमनस्य और दुर्भावनाओ के बीज अकुरित होते हैं, जो एक दिन विष-वृक्ष के रूप मे हमारे सामने प्रस्तुत होते हैं।
वर्तमान के सदर्भ में भी स्याद्वाद की अर्हता निर्विवाद है। इसमे वैयक्तिक, सामाजिक, राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय सभी समस्याओं का सुन्दर समाधान सनिहित है।
___ शोपणहीन समाज की सरचना, नि शस्त्रीकरण, विश्वमैत्री, सहअस्तित्व आदि दृष्टियो और सिद्धातो का पल्लवन-उन्नयन स्याद्वाद के प्रतिष्ठान से ही सभव है।
जैन दर्शन की यह सुलझी हुई मान्यता समूचे विश्व के लिए एक वैज्ञानिक देन है।