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जैनधर्म जीवन और जगत् व्यवस्था कैसे चलेगी? जीवन-क्रम कैसे चलेगा? इसका उत्तर है कि अनेकात मे इस विरोध के परिहार का मार्ग भी उपलब्ध है। उसका एक सूत्र है-सर्वथा विरोध और सर्वथा अविरोध जैसा दुनिया मे कुछ भी नहीं है। जहा विरोध है वहा अविरोध भी है । विरोध और अविरोध को कभी कम नही किया जा सकता। यह विश्व सप्रतिपक्ष है । प्रतिपक्ष के बिना पक्ष का अस्तित्व सभव नहीं। हमारा जीवन द्वन्द्वात्मक है । सुख-दुख, लाभ-अलाभ, जीवन-मरण, मान-अपमान-ये सब सापेक्ष हैं । इनको एक दूसरे से अलग नहीं किया जा सकता, इनके विरोध-परिहार का उपाय है- सापेक्षता ।
हमारे शरीर मे दो परस्पर विरोधी प्राण धाराए प्रवाहित हैंनेगेटिव और पोजिटिव । चन्द्रनाडी और सूर्यनाडी । पर क्या ये सर्वथा विरोधी हैं ? सचाई यह है कि एक के विना दूसरी का भी अस्तित्व सुरक्षित नही रहता । अकेली चन्द्रनाडी या अकेली सूर्यनाडी हमारे जीवन को सुरक्षित नही रख सकती। हमारे शरीर को सक्रिय नही रख सकती। हमारी शारीरिक, मानसिक और भावनात्मक क्रियाओ का सचालन नही कर सकती।
हमारे जीवन का एक आधार है प्राण वायु और अपान वायु । ये परस्पर विरोधी है फिर भी दोनो का सापेक्ष मूल्य है । जीवन के लिए दोनो की अनिवार्यता है।
हमारे शरीर मे अनेक प्रकार की ग्रन्थिया है। सबके अलग-अलग भाव हैं । अलग-अलग कार्य हैं फिर भी सब एक दूसरे के पूरक है । परस्पर सामजस्य है । जब तक सामजस्य पूर्वक ग्रन्थि-तत्र काम करता है, तब तक शारीरिक स्थिति ठीक रहती है । सामजस्य टा कि सब गडबडा जाएगा। सतुलन विरोधो के मध्य सेतु है । सतुलन का आधार है अनेकात दृष्टि । अनेकात सापेक्ष सत्यो की स्वीकृति है । अपेक्षा भेद से ही हम शाश्वत और सामयिक सत्य को अपनी-अपनी भूमिका मे स्वीकृति या अस्वीकृति देते हैं ।
विरोधी युगलो मे सगति स्थापित करने का आधार है विवक्षा-भेद । जिस समय मे पदार्थ के जिस गुण-धर्म की विवक्षा होती है, वह प्रधान हो जाता है और शेष सारे धर्म गोण रूप से उस पदार्थ के अन्तहित हो जाते हैं । ऐसा किए बिना प्रत्येक पदार्थ हमारे लिए अनुपयोगी या अप्रासगिक हो जाता है।
गति की सामान्य प्रक्रिया है कि एक पैर आगे रहे और एक पर पीछे रहे । यदि दोनो पर आगे या बराबर रहने का आग्रह करे तो गतिक्रिया नही हो सकती । विलौना करते समय मथनी की रस्सी को थामने वाले दोनो हाथ क्रमश आगे पीछे होते रहते हैं । तभी मथन होता है । नवनीत निकलता है । वस्तु के एक धर्म की प्रधानता और शेष समस्त धर्मों की अप्रधानता अनेकात का व्यावहारिक रूप है।