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जैनधर्म : जीवन और जगत्
मक तत्त्व कोई दूसरा है जो अदृश्य है । शरीर के सो जाने पर भी वह शक्ति नही सोती। वह सतत जागृत तत्त्व 'चेतना' ही है । उस अदृश्य चेतन तत्त्व की सत्ता सर्वत्र काम कर रही है । पाच-छ फुट के इस छोटे-से शरीर मे जो स्वचालित क्रियाए हो रही हैं वे इस अदृश्य की ही सूचना दे रही हैं। वैज्ञानिक कहते हैं-"यदि इस शरीर का निर्माण हमे करना पड़े तो कम-सेकम दस वर्ग मील मे एक कारखाना बनाना पडे ।
महान् दार्शनिक आचार्यश्री महाप्रज्ञ आत्मा के अस्तित्व को बहुत ही सरल शैली मे समझाते हैं। वे कहते हैं-"हमारे स्थूल शरीर मे एक सूक्ष्म शरीर है, उसका नाम है तैजस शरीर । उसके भीतर सूक्ष्मतर शरीर है, उसका नाम है कर्म शरीर । उसके भीतर आत्मा है वह हमारे आचार, विचार और व्यवहार का संचालन करता है, नियमन करता है । चेतना की रश्मिया कर्म और तेजस् शरीर की दीवारो को पार कर स्थूल शरीर तक पहुचती हैं । उससे हमारा ज्ञान-तन्त्र, भाषा-तन्त्र और क्रिया-तन्त्र सक्रिय होता है । उसी के आधार पर व्यक्ति का व्यक्तित्व निर्मित होता है।" इस प्रकार हम देखते हैं कि आत्मा हमारे प्रत्यक्ष नही है, फिर भी उसके गुणधर्म प्रत्यक्ष हैं । यही आत्मा की अस्तित्व-सिद्धि का पुष्ट प्रमाण है। जैन-दर्शन में आत्मा
जैन-दर्शन के अनुसार आत्मा चैतन्य स्वरूप, परिणामी-विभिन्न अवस्थाओ मे परिणत होने वाला कर्त्ता और भोक्ता है । वह स्वय अपनी सत्-असत् प्रवृत्ति द्वारा शुभ-अशुभ कर्मों का सचय करता है और उनका फल भोगता है।
आत्मा का कोई आकार-प्रत्याकार नही होता । वह न हल्का है, न भारी, न स्त्री है, न पुरुष । ज्ञानमय असख्य प्रदेशो का समूह है।
आत्मा एक द्रव्य है, वह चैतन्य का अजस्र स्रोत है । उसके अनेक गुण-धर्म हैं । उनमे दो प्रमुख हैं -गुण और पर्याय । कुछ वस्तु धर्म ऐसे होते हैं जो सदा अमुक द्रव्य के साथ रहते हैं, बदलते नही, वे गुण कहलाते हैं । परिवर्तनशील धर्म पर्याय कहलाते हैं। गुण और पर्याय की दृष्ट से आत्मा के मुख्य दो भेद होते हैं-द्रव्य आत्मा और भाव आत्मा ।
द्रव्य आत्मा एक है । वह चेतना-मय असख्य अविभाज्य अवयवो का समूह है। यानी आत्मा असख्य प्रदेशी है । इसका अर्थ यह हुआ कि एक, दो तीन प्रदेशी जीव नही होते । असख्य प्रदेशो के समुदाय का नाम ही जीव या आत्मा है ।
द्रव्य आत्मा कालिक तत्त्व है । वह अजर-अमर है । वह न कभी जन्मता है, न मरता है । उसका अस्तित्व कभी समाप्त नही होता। अतीत