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३. कर्म-परमाणु चतु स्पर्शी होते हैं । अत्यन्त सूक्ष्म होते हैं ।
४. कर्म - प्रायोग्य पुद्गल ही कर्म रूप में परिणत हो सकते हैं। हर कोई पुद्गल कर्म नही बन सकता । कर्म अनन्त परमाणुओ के स्कध हैं । कर्म जीवात्मा के आवरण, परतत्रता और दुखो का हेतु है ।
कर्म-परमाणु अपने आप प्राणी के साथ सवध स्थापित नही करते । जीव अपनी शुभ-अशुभ प्रवृत्ति के द्वारा उन अनन्त प्रदेशी कर्म- पुद्गलो को आकर्षित करता है । अपने साथ सम्बन्ध स्थापित करता है और वह सवध बहुत गहरा हो जाता है । आत्मा के प्रत्येक प्रदेश पर अनन्त - अनन्त कर्मपरमाणु-स्कन्ध जुड जाते हैं । परस्पर एकमेक हो जाते हैं । यहीं है कर्म - वध | यद्यपि कार्मण वर्गणा के पुद्गल पूरे लोकाकाश मे व्याप्त हैं, किन्तु आत्मा के साथ कर्म रूप मे वे ही बधते हैं जो आत्म-प्रदेशो के साथ एक क्षेत्रावगाढ होते हैं ।
जैनधर्म जीवन और जगत्
बन्धन की अपेक्षा आत्मा और कर्म अभिन्न हैं । एकमेक हैं । लक्षण की अपेक्षा भिन्न हैं । जीव चेतन है, कर्म अचेतन है। जीव अमूर्त है, कर्म मूर्त है ।
अमूर्त आत्मा को मूर्त कर्म - पुद्गल प्रभावित करते हैं । जैसे - वेडी से मनुष्य बन्धता है, शराब से पागल बनता है । क्लोरोफार्म से बेहोश हो जाता है, वैसे ही कर्मों के सयोग से जीवात्मा की इस प्रकार की दशाए होती हैं। बाहरी निमित्तो का प्रभाव अल्पकालीन होता है । कर्म आत्मा के साथ चिपके हुए तथा विशेष सामर्थ्यं वाले सूक्ष्म स्कध हैं । इसलिए उनका जीवन पर गहरा और आंतरिक प्रभाव पडता है ।
बध के प्रकार
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बन्ध के सामान्यत चार प्रकार बताए गए हैं
प्रदेश बन्ध - आत्म-प्रदेशो के साथ कर्म - पुद्गलो का जुडना । यह एकीभाव की व्यवस्था है ।
- स्वभाव का निर्माण या निर्धारण करना कि अमुक कर्म - पुद्गल आत्मा के कौन-से गुण का आवारक, विकारक या विघातक बनेगा ? यह है स्वभाव
प्रकृति बन्ध
व्यवस्था ।
स्थितिबन्ध - कौन - सा कर्म कितने समय तक आत्मा के साथ रहेगा और कब अपना विपाक - फल देगा, यह है स्थिति का निर्धारण । अर्थात् काल मर्यादा की व्यवस्था ।
अनुभाग बन्ध - कर्म किस प्रकार का फल देगा ? आत्मा को मद रूप से प्रभावित करेगा या तीव रूप से, यह अनुभाग बघ का काम है । यह है फलदान शक्ति की व्यवस्था ।