Book Title: Jain Dharm Jivan aur Jagat
Author(s): Kanakshreeji
Publisher: Jain Vishva Bharati

View full book text
Previous | Next

Page 114
________________ ९८ ३. कर्म-परमाणु चतु स्पर्शी होते हैं । अत्यन्त सूक्ष्म होते हैं । ४. कर्म - प्रायोग्य पुद्गल ही कर्म रूप में परिणत हो सकते हैं। हर कोई पुद्गल कर्म नही बन सकता । कर्म अनन्त परमाणुओ के स्कध हैं । कर्म जीवात्मा के आवरण, परतत्रता और दुखो का हेतु है । कर्म-परमाणु अपने आप प्राणी के साथ सवध स्थापित नही करते । जीव अपनी शुभ-अशुभ प्रवृत्ति के द्वारा उन अनन्त प्रदेशी कर्म- पुद्गलो को आकर्षित करता है । अपने साथ सम्बन्ध स्थापित करता है और वह सवध बहुत गहरा हो जाता है । आत्मा के प्रत्येक प्रदेश पर अनन्त - अनन्त कर्मपरमाणु-स्कन्ध जुड जाते हैं । परस्पर एकमेक हो जाते हैं । यहीं है कर्म - वध | यद्यपि कार्मण वर्गणा के पुद्गल पूरे लोकाकाश मे व्याप्त हैं, किन्तु आत्मा के साथ कर्म रूप मे वे ही बधते हैं जो आत्म-प्रदेशो के साथ एक क्षेत्रावगाढ होते हैं । जैनधर्म जीवन और जगत् बन्धन की अपेक्षा आत्मा और कर्म अभिन्न हैं । एकमेक हैं । लक्षण की अपेक्षा भिन्न हैं । जीव चेतन है, कर्म अचेतन है। जीव अमूर्त है, कर्म मूर्त है । अमूर्त आत्मा को मूर्त कर्म - पुद्गल प्रभावित करते हैं । जैसे - वेडी से मनुष्य बन्धता है, शराब से पागल बनता है । क्लोरोफार्म से बेहोश हो जाता है, वैसे ही कर्मों के सयोग से जीवात्मा की इस प्रकार की दशाए होती हैं। बाहरी निमित्तो का प्रभाव अल्पकालीन होता है । कर्म आत्मा के साथ चिपके हुए तथा विशेष सामर्थ्यं वाले सूक्ष्म स्कध हैं । इसलिए उनका जीवन पर गहरा और आंतरिक प्रभाव पडता है । बध के प्रकार ·--- बन्ध के सामान्यत चार प्रकार बताए गए हैं प्रदेश बन्ध - आत्म-प्रदेशो के साथ कर्म - पुद्गलो का जुडना । यह एकीभाव की व्यवस्था है । - स्वभाव का निर्माण या निर्धारण करना कि अमुक कर्म - पुद्गल आत्मा के कौन-से गुण का आवारक, विकारक या विघातक बनेगा ? यह है स्वभाव प्रकृति बन्ध व्यवस्था । स्थितिबन्ध - कौन - सा कर्म कितने समय तक आत्मा के साथ रहेगा और कब अपना विपाक - फल देगा, यह है स्थिति का निर्धारण । अर्थात् काल मर्यादा की व्यवस्था । अनुभाग बन्ध - कर्म किस प्रकार का फल देगा ? आत्मा को मद रूप से प्रभावित करेगा या तीव रूप से, यह अनुभाग बघ का काम है । यह है फलदान शक्ति की व्यवस्था ।

Loading...

Page Navigation
1 ... 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 153 154 155 156 157 158 159 160 161 162 163 164 165 166 167 168 169 170 171 172 173 174 175 176 177 178 179 180 181 182 183 184 185 186 187 188 189 190 191 192