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जैनधर्म जीवन और जगत्
होता है । शुभ नाम कर्म के उदय से व्यक्ति सुन्दर, आदेय-वचन, यशस्वी और आकर्षक व्यक्तित्व-सपन्न होता है। अशुभ नाम कर्म के उदय का परिणाम ठीक इसके विपरीत होता है।
जो कर्म-पुद्गल जाति, कुल, बल, श्रुत, ऐश्वर्य आदि की दृष्टि से व्यक्ति की विशिष्टता और हीनता के हेतु वनते हैं-वह गोत्र-कर्म है । यह भी दोनो प्रकार का है।
__ व्यक्ति की श्रेष्ठता-अश्रेष्ठता, सम्मान-असम्मान-- ये सब नाम और गोत्र कर्म के कारण होते हैं । इनके क्षय से पूर्णता-अगुरुलघुता प्राप्त होतो है । आत्मा अपने नैसर्गिक रूप में स्थित होती है।
जो कर्म-पुद्गल अमुक समय तक अमुक प्रकार के जीवन के निमित्त बनते हैं वह आयुष्य कर्म है । शुभ और अशुभ आयुष्य सुखी और दुखी जीवन का निमित्त बनता है । इससे देव, मनुष्य, तिथंच और नरक-आयु प्राप्त होती है । आयुष्य कर्म के क्षय से आत्मा अमर और अजन्मा बनती
कर्म की अवस्थाएं
कर्म की मुख्यतया तीन अवस्थाए हैं१ बध्यमान-जीवात्मा के साथ कर्म-पुद्गलो का सम्बन्ध, सश्लेष
होता है, वह बद्ध अवस्था है। २ सत्ता-कर्म बन्ध होते ही उसका परिणाम चालू नहीं होता,
कुछ समय के लिए उनका परिपाक होता है। यह
परिपाक-काल "सत्ता" है । सत् अवस्था है। ३ उदीयमान-परिपाक के पश्चात् प्राणी को सुख-दुख रूप या
आवरण रूप फल मिलता है। यह कर्म की उदीयमान
(उदय) अवस्था है। अन्य दर्शनो मे कर्म की क्रियमाण, सचित और प्रारब्ध -ये तीन अवस्थाए मानी गई हैं, जो उक्त तीनो अवस्थाओ की समानार्थक हैं।
वास्तव मे "कर्मवाद" जैन-दर्शन का बहुत बडा मनोविज्ञान है । कर्मशास्त्र के अध्ययन के बिना न मन का समग्रता से विश्लेषण हो सकता है, न व्यक्तित्व का । बहुत विशाल और सूक्ष्म है कर्म का जगत् । कर्म-परमाणुओ से हमारी असख्य दुनिया भर सकती है। उनके सामने हमारे स्थूल शरीर की रचना करने वाली छह सौ खरब कोशिकाए कुछ भी नहीं हैं। इस शरीर में प्रति सैकण्ड पाच करोड़ कोशिकाए तथा प्रति मिनट तीन अरब कोशिकाए उत्पन्न होती हैं और नष्ट होती हैं। कितने रासायनिक परिवर्तन होते रहते हैं । यह स्थूल शरीर की बात है। हमारा कर्म शरीर बहुत सूक्ष्म है । सब कर्मों की मूल और उत्तर प्रकृतिया स्वत