Book Title: Jain Dharm Jivan aur Jagat
Author(s): Kanakshreeji
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 46
________________ ३० जैनधर्म जीवन और जगत् प्राप्त कर सकता है । अध्यात्म साधना द्वारा चेतना का विकास कर वह नर से नारायण बन सकता है, आत्मा से परमात्मा बन सकता है। सरल भाषा मे समझे तो गतियो मे एक मनुष्य गति ही ऐसी है, जहा से मोक्ष प्राप्त हो सकता है । मनुष्य मे वह क्षमता है कि यदि वह ऊपर उठे तो लोक शीर्ष पर सिद्धात्मा के रूप में प्रतिष्ठित हो सकता है और गिरे तो महानरक-सातवी नरक भूमि मे भी जा सकता है। यह सब आत्मा की शुद्धि, अशुद्धि तथा उसकी तरतमता पर निर्भर है। मनुष्य तीन प्रकार के होते हैं-कर्म-भूमिज, अकर्म-भूमिज और समूच्छिम । कर्म-भूमिज मनुष्य कर्म-क्षेत्र में उत्पन्न होते हैं । वे असि, मसि, कृषि आदि साधनो द्वारा जीविका चलाते हैं। ऋषि-परम्परा के सवाहक कर्म-क्षेत्र मे उत्पन्न मनुष्य ही बनते हैं । ये मनुष्य पुरुषार्थ-प्रधान होते हैं । अकर्म-भूमिज मनुष्य "योगलिक" कहलाते हैं। इन्हे जीवन-निर्वाह के लिए असि, मसि, कृषि रूप पुरुषार्थ की अपेक्षा नही रहती । उनके जीवनयापन के साधन कल्पवृक्ष होते हैं। उनके जीवन की आवश्यकताए इतनी न्यूनतम होती हैं कि कल्पवृक्ष से जो कुछ प्राप्त होता है, उसी से वे संतुष्ट हो जाते हैं। समूच्छिम मनुष्य नाम से तो मनुष्य ही हैं, पर उनमे मनुष्यता जैसा कुछ भी नही है । मानव-शरीर से विसर्जित मल-मूत्र आदि चौदह स्थानको मे उन जीवो की उत्पत्ति है । वे पचेन्द्रिय होते हैं, पर असज्ञी (असन्नी) होते है। उनमे मानसिक सवेदन नही होता । उन्हें मनुष्य गति प्राप्त है, पर प्रगति के द्वार बन्द हैं। अल्पायुष्य होने के कारण अपर्याप्त दशा मे मर जाते हैं। देव-दिव्य लोक मे विहार करने वाले देव कहलाते हैं । देवो का शरीर दीप्तिमान होता है । वह मनुष्य शरीर की भाति अस्थि, मज्जा आदि धातुओ से निर्मित नही है । उनके शरीर को वैक्रिय शरीर कहते हैं । देव इच्छानुसार विविध रूपो का निर्माण कर सकते हैं। इस प्रक्रिया को विक्रिया (विकुर्वणा) कहते हैं। जैन-आगमो मे देवो के चार प्रकार बतलाए गए हैं-भवनपति, वानव्यतर, ज्योतिाक और वैमानिक । असुर कुमार, नागकुमार आदि भवनपति देवो के आवास नीचे लोक में हैं । पिशाच, भूत, यक्ष आदि व्यतर देव तथा सूर्य, चन्द्र आदि ज्योतिष्क देव (निरछे) मध्य लोक मे रहते हैं। वैमानिक देव दो प्रकार के हैं१ पल्पोपन्न २ कल्पातीत । बारह देवलोक के देव कल्लोपन्न हैं। वहा या मचालन म्वामी-सेवक आदि व्यवस्थामओ के आधार पर होता है। उनसे कार नव ग्रेवेयक और पाच अनुत्तर विमान के देव कल्पातीत होते हैं । वे देव म्बन शामित हैं । व्यवस्याए स्वय सचालित हैं। वहा स्वामी-सेवक

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