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पुण्य और पाप
कर्म मे क्मक्षय नही होता । धीर पुरुष अकर्म से कर्म क्षय करते हैं।
गीता का शिक्षापद है बुद्धिमान वह है जो सुकृत (पुण्य) और दुष्कृत (पाप) दोनो का परित्याग करे। इन सन्दर्भो से सिद्ध हो जाता है कि अध्यात्म साधक के लिए पुण्य और पाप दोनो त्याज्य हैं।
तत्त्व-मीमासा की यात्रा मे धर्म और अधर्म तथा पुण्य और पाप का सम्यक् अववोध करना नितात अपेक्षित है।
धर्माधमो पुण्य-पापे अजानन् तत्र मुह्यति । धर्माधर्मी पुण्य-पापे, विजानन् नात्र मुहति ।।
-सबोधि २/४० जो व्यक्ति धर्म और अधर्म तथा पुण्य और पाप को नहीं जानता, वह इस विषय मे मूढ़ होता है । जो इन्हें सम्यक् रूप से जानता है, वह इस विषय मे मूढ़ नही होता।