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जैनधर्म : जीवन और जगत्
वह स्वतत्र भी है और पूर्वोक्त चारो सूक्ष्म प्रवृत्तियो की अभिव्यक्ति का हेतु
चार सूक्ष्म वृत्तिया अशुभ ही होती हैं । योग शुभ और अशुभ दो प्रकार का होता है। अशुभ योग से अशुभ कर्मों का वन्ध होता है। शुभ योग से शुभ कर्मों का बन्ध होता है और साथ मे निर्जरा भी होती है। जैसे कुछ औषधिया रोगो का नाश करती हैं और शरीर का पोषण भी करती हैं, ठीक यही स्वभाव और काय शुभ योग का है। साधक पहले अशुभ का त्याग करता है और धीरे-धीरे शुभ कर्म भी छूट जाता है ।।
शुभ प्रवृत्ति जब फलाशसा और वासना से शून्य होती है, तब क्रमश निवृत्ति का विकास होता है। पूर्ण निवृत्ति की स्थिति मे आत्मा के बन्धन नही होता।