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जैनधर्म . जीवन और जगत्
करना वृत्ति-सक्षेप है।
४. रस-परित्याग-दूध, दही, घी आदि सरस-स्निग्ध पदार्थों का वर्जन करना, अस्वाद का अभ्यास करना रस-परित्याग है।
५ कालक्लेश-विभिन्न आसनो द्वारा शरीर को साधने का नाम कायक्लेश है।
६. प्रतिसलीनता-इन्द्रिय, मन आदि की वहिर्मुखी प्रवृत्ति को अन्तर्मुखी बनाना प्रतिसलीनता है।
__तप के उक्त छह प्रकारो को बाह्य तप कहते हैं। ये विशेष रूप से स्थूल शरीर को प्रभावित करते हैं और बाह्यरूप से दिखाई देते हैं, इसलिए इन्हे बाह्य-तप कहते हैं, तथापि मतरग तप को पुष्ट करने मे इनकी अह भूमिका रहती है । तपोयोग की यात्रा मे खाद्य सयम का पहला स्थान है । बाह्य तप के चार भेद इसी परिप्रेक्ष्य मे किए गए हैं। साधना के विकास हेतु यह मावश्यक भी है । खाने के सयम के विना सयम और तप की अग्रिम भूमिका तक नही पहुचा जा सकता। अच्छाई का प्रारम्भ आहार-शुद्धि के व्रत से होता है। आहार-शुद्धि से सस्कार-शुद्धि, सस्कार-शुद्धि से विचार-शुद्धि और विचार-शुद्धि से व्यवहार-शुद्धि होती है।
बाह्य तप की भाति अतरग तप के भी छह प्रकार हैं।
१ प्रायश्चित्त दोष की विशुद्धि के लिए प्रयत्न करना प्रायश्चित्त हैं। इससे आत्मा निर्मल होती है । ऋजुता-पूर्वक प्रायश्चित्त करने से मन की ग्रन्थियो का मोचन होता है और नया ग्रन्थिपात नही होता ।
२. विनय-कर्मों का अपनयन करना विनय का आध्यात्मिक पक्ष है । अह-विसर्जन, बडो का बहुमान और उनके प्रति असद् व्यवहार का वर्जन विनय का व्यावहारिक पक्ष है।
३. वैयावृत्य-सहयोग की भावना से सेवा-कार्य मे जुडना वयावृत्य है । इस तप की आराधना करने वाला छोटो-बडो की अपेक्षामो को समझ कर सेवा-भावना और कर्तव्य-निष्ठा से उनका सहयोगी बनता है। पूर्ण आत्मार्थी भाव का विकास होने पर ही वयावृत्य किया जा सकता है । यहा आध्यात्मिक सेवा ही तप की श्रेणी में आती है। वही निर्जरा का कारण है।
४. स्वाध्याय-आध्यात्मिक ग्रन्थो के अध्ययन, मनन और निदिध्यासन का नाम स्वाध्याय है।
५. ध्यान - मन की एकाग्रता तथा योग-निरोध का नाम ध्यान है। इससे चित्त-शुद्धि और आन्तरिक निर्मलता का विकास होता है । ध्यान की मन्तिम निष्पत्ति है-ज्ञाता-द्रष्टा भाव को जागृत कर आत्म-स्वरूप में अवस्थित होना।