________________
७२
जैनधर्म • जीवन और जगत्
उसे कभी प्रभावित नहीं करते । वह देहातीत है, द्वन्द्वातीत है।
प्रश्न होता है कि जब बन्धन और मुक्ति दोनो आत्मा के अधीन हैं तो फिर जीवात्मा बन्धन से मुक्ति की दिशा मे कैसे प्रस्थान कर सकती है ? बन्धन-मुक्ति की प्रक्रिया क्या है ?
जैन साधना-पद्धति के अनुसार मोक्ष के उपाय हैं -सम्यग् ज्ञान, दर्शन और चारित्र । एक दृष्टि से देखा जाए तो ज्ञान, दर्शन और चारित्र आत्मा का स्वरूप है। मोक्ष का अर्थ है -स्वरूप की उपलब्धि या स्वरूप मे अवस्थिति । उमका उपाय है –सवर और निर्जरा।"
जैसे किसी बहुत बड़े तालाब के जलागम के स्रोतो को बन्द कर दिया जाए, भीतर के पानी को जल-प्रणालियो द्वारा बाहर निकाल दिया जाए तथा बचे-खुचे पानी का सूरज की प्रखर किरणो से अवशोषण हो जाए तो तालाब क्रमश खाली हो जाता है, सूख जाता है, वैसे ही आत्मा की ओर आने वाले कर्म-प्रवाह का सवर द्वारा निरोध कर देना और अन्त. स्थिति कर्म-मलो का निर्जरा द्वारा निष्कासन और अवशोषण कर देना, यही है मुक्ति की प्रक्रिया। इससे कर्म-पुद्गलो का ग्रहण रुक जाता है और पूर्वबद्ध कर्मों का क्षय होता है । ऐसा होने पर आत्मा सिद्ध-बुद्ध, परमात्मरूप मे अवस्थित हो जाती है । अब उसके पास ससार मे रहने का कोई कारण नही रह जाता । अतः वह निर्वाण को प्राप्त हो जाती है ।
तात्पर्य की भाषा मे मोक्ष के साधक तत्त्व दो हैं-सवर और निर्जरा । दूसरे शब्दो मे निवृत्ति और सत् प्रवृत्ति । सवर-मोक्ष का पहला उपाय है-सवर ।
आश्रवनिरोधः सवर ।
जै. सि दी ५/१ मोक्ष के बाधक और साधक तत्त्वो की चर्चा में आस्रव को बाधक तथा सवर और निर्जरा को साधक माना गया है। सवर आत्मा की वह परिणति है, जिससे आस्रव का निरोध होता है । सवर मोक्ष का प्रकृष्ट हेतु है । वह आत्म-सयम करने से उपलब्ध होता है । सवर आस्रव का प्रतिपक्षी है। इसीलिए जितने आस्रव हैं, उतर ही सवर हैं । आस्रव के पाच विभाग हैं तो संवर भी पाच प्रकार का है ।
सम्यक्त्व सवर-यथार्थ तत्त्व-श्रद्धा का नाम सम्यक्त्व है। जीवअजीव आदि नौ तत्त्वो के प्रति सम्यक श्रद्धा का होना तथा विपरीत श्रद्धा का त्याग करना सम्यक्त्व सवर का स्वरूप है। यह मिथ्यात्व आस्रव का प्रतिपक्षी है।
विपरीत सवर-बाह्य पदार्थों के प्रति अनासक्ति अथवा अशुभ योग का त्याग विरति सवर है। इसके दो रूप हैं-देश विरति और सर्व