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जैनदर्शन में आत्मवाद
आत्म विद्या : परम विद्या
उपनिषद् में उद्दालक और श्वेतकेतु का एक मार्मिक दृष्टात है । श्वेतकेतु गुरुकुल से सपूर्ण ज्ञान प्राप्त कर आया। प्रतिभा सपन्न था। गुरुकुल की सब परीक्षाए प्रथम श्रेणी से उत्तीर्ण की। अनेक स्वर्णपदक प्राप्त किए होगे । यौवन की उष्मा । सिर पर ज्ञान-राशि का गोवर्धन पर्वत । अकडना स्वाभाविक था। पिता के चरणो मे प्रणत नहीं हो सका । सीधा खडा रहा । पिता ने देखा। सोचा-इतना पढ़-लिख कर भी अज्ञानी का अज्ञानी आ गया । पिता निराश हुए। पुत्र पर प्रसन्नता का प्रसाद नही वरसा । गभीर मुद्रा मे पूछा-गुरुकुल मे क्या-क्या पढा ? पुत्र ने पठित विषयो की लम्बी सूची प्रस्तुत कर दी। ऋषि ने वत्सलभाव से पूछा-वत्स, ऐसी कोई चीज पढ़ी है, जिसको जान लेने से सब कुछ जान लिया जाता है । श्वेतकेतु का मुख श्वेत हो गया । वह बोला-ऐसा तो हमारे अभ्यासक्रम मे किसी ने नहीं सिखाया । उद्दालक ने पुन प्रश्न किया-आत्मा को जाना ? आत्मा को पहचाना ? उसने नकारात्मक सिर हिलाया। ऋषि ने कहा-पुत्र, आत्मविद्या वह परम विद्या है जिसे जान लेने पर सब कुछ जान लिया जाता है । आत्मज्ञान के अभाव में सब कुछ जानकर भी व्यक्ति अज्ञानी रह जाता है।
काल की लम्बी अवधि मे न जाने ऐसे कितने श्वेतकेतु हो चुके हैं और वर्तमान मे भी कितने हैं, जो विभिन्न विद्या-शाखाओ मे पारगामिता प्राप्त कर के भी आत्मा के सम्बन्ध मे अनजान हैं । स्वय से अपरिचित हैं । तत्वबोध की यात्रा का आदि विन्दु है --आत्मा । भगवान महावीर ने भी कहा-"जे एग जाणइ से सव्व जाणइ" जो एक आत्मा को जान लेता है, वह सब कुछ जान लेता है । हम और हमारा अस्तित्व
हमारा अस्तित्व दो तत्त्वो का सयोग है । एक है चेतन-जीव, दूसरा है अचेतन-शरीर । कुछ लोग केवल शरीर को ही मानते हैं। वे चेतन या बात्मा की स्वतत्र सत्ता को स्वीकार नहीं करते । वे अनात्मवादी हैं । आत्मवादी दर्शन आत्मा और शरीर को भिन्न मानता है और चेतन के स्वतत्र