________________
जैन दर्शन में द्रव्यवाद
हम जिस दुनिया मे जीते हैं वह अगणित रहस्यो के घेरो में कैद है। प्रत्येक बुद्धिमान या चितनशील व्यक्ति उन धेरो को पार कर सत्य के केन्द्र तक पहुचना चाहता है, यथार्थता का बोध करना चाहता है । दर्शन-जगत्
और विज्ञान-जगत् अपने-अपने ढग से इन रहस्यो को अनावृत्त करने के लिए विश्व के स्वरूप की चर्चा करते हैं। इस सन्दर्भ मे जैन-दर्शन का मतव्य सर्वथा मौलिक और अद्भुत है । कई दृष्टियो से वह आधुनिक विज्ञान की अवधारणाओ से भी समानता रखता है।
जैन-दर्शन में विश्व के लिए 'लोक' शब्द प्रयुक्त हुआ है। लोक के स्वरूप की विवेचना मे वह पञ्चास्तिकायवाद या षद्रव्यवाद का विशदता से प्रतिपादन करता है । लोक की व्याख्या का आधार छह द्रव्यो का अस्तित्व ही है । अनन्त आकाश के जिस भाग मे छह द्रव्य हैं, वह लोक है।
लोक भाषा मे द्रव्य शब्द का अर्थ है-वस्तु, पदार्थ या मेटर। समूचा विश्व पदार्थो से या वस्तुओ से भरा पड़ा है। पर दर्शन की भाषा मे उन सब वस्तुओ को द्रव्य नहीं कहा जाता । मूलभूत पदार्थ या वस्तु (अल्टीमेट रियल्टी) को ही द्रव्य कहा जाता है । जैन-दर्शन के अनुसार समन विश्व की सरचना या व्यवस्था के मौलिक अग छह हैं। उन्हे षड् द्रव्य कहते हैं। यह विश्व षड्द्रव्यात्मक है। विश्व मे जितने भी पदार्थ अपना वास्तविक अस्तित्त्व रखते है, उन सबका समावेश इन छह मौलिक द्रव्यो मे किया गया है। इन छह द्रव्यो की व्याख्या ही विश्व स्वरूप की व्याख्या है। द्रव्य
किसी भी पदार्थ को मौलिक द्रव्य की सज्ञा तभी मिल सकती है, जवकि उसमे अपना कोई एक विशेष लक्षण ऐसा हो जो अन्य द्रव्यो मे न मिले और उस द्रव्य मे उसका अस्तित्व सदा-सर्वथा बना रहे। अवस्थापरिवर्तन के बावजूद भी उस गुण-धर्म की ध्रुवता लक्षित वस्तु मे अवश्य उपलब्ध हो, इस परिभाषा के अनुसार विश्व-व्यवस्था के हेतुभूत ये छह द्रव्य
धर्म, अधर्म, आकाश, काल, पुद्गल और जीव । इनमे पांच अस्तिकाय हैंधर्माधर्माकाशपुद्गल जीवास्तिकाय प्रव्याणि ।
-ज. सि. वी. १/१