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पुण्य और पाप
शुभ कर्म पुण्यम् । अशुभ कर्म पापम् ||
- ( जैन सिद्धात दीपिका, ४ / १२, १४)
सामान्य भाषा मे सत्कर्म को पुण्य और असत्कर्म को पाप कहते हैं, किन्तु जैन तत्त्व-दर्शन की भाषा मे शुभ कर्मों की उदयावस्था को पुण्य और अशुभ कर्मों की उदयावस्था को पाप कहा जाता है । सत्कर्म और असत्कर्म क्रमश पुण्य और पाप धन के निमित्त हैं । कारण मे कार्य का उपचार होने से लोक व्यवहार मे पुण्य और पाप शब्द सत्क्रिया तथा असत्क्रिया के अर्थ मे प्रयुक्त हो जाते हैं ।
आत्म-प्रदेशो के साथ बधे हुए कर्म-पुद्गल जब तक उदय मे नही आते, तब तक जीव को सुख-दुख आदि की अनुभूति नही होती । जब बद्ध फर्म उदय मे आते हैं और सुखद दुखद सवेदन के निमित्त बनते हैं, तब वे पुण्य-पाप कहलाते हैं ।
सात वेदनीय, शुभनाम, उच्चगोत्र और शुभ आयुष्य कर्म पुण्य है । अथवा इमे यो भी कह सकते हैं कि शुभ कर्मों के उदय से जीव को सुख सवेदन, शुभ नाम, उच्च-गोत्र और शुभ आयुष्य की स्थिति प्राप्त होती हे ।
बेविदा दाणविदा य, गरिदा जे य विस्सुता । पुण्ण- फम्मोदयन्भूत पीति पावति पोवर ॥
इस धरती पर जितने भी विश्व विश्रुत देवेन्द्र, दानवेन्द्र अथवा नरेन्द्र हुए हैं, वे सव पुण्य कर्मों के उदय से ही जन-जन के प्रीति पात्र वने हैं | उन्हें पर्याप्त जनप्रियता प्राप्त हुई है । फर्म- शास्त्रीय व्याख्या भी यही है, जैने शुभनाम वर्म के उदय मे शरीर का सौन्दर्य, दृढना, जन प्रियता आदि उपलब्ध होते हैं । शुभगोत्र वमं के उदय मे उच्चता, लोक्पूज्यता आदि प्राप्त होते हैं। शुभ आयुष्य वर्म के उदय से सुखद दीर्घायु प्राप्त होती है । सात वेदनीय कम के उदय ते शारीरिक और मानसिक सुख की अनुभूति होती है ।
पुण्प-बधन का हेतु - जितने भी प्रकार को सत्प्रवृत्ति है, वह पुण्यधना हेतु है ।
अहितक, अपरिग्रही, त्यागी साधु-सतो की साधना मे सहयोग