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शक्ति-स्त्रोत-पर्याप्ति
मामारिक जीव किसी न किसी स्प मे प्रवृत्ति करता रहता है, जंगे-आहार, स्पदन, सवेदन, चिंतन, मनन, भाषण आदि । ये सब क्रियाए विनिप्ट पत्तियो के द्वारा ही सपादित होती हैं । इनमे से पहली शक्ति है प्राण तथा दूमरी शक्ति है पर्याप्ति की। प्राण-भक्ति और पर्याप्ति शक्ति - का दोनो के सहयोग से ही प्राणी अपनी जीवन-यात्रा चलाता है।
प्राण आत्मिक शक्ति है, पर्याप्ति पोद्गलिक शक्ति । जैसे-बोलने मे जो ध्यान या आत्मीय प्रयत्न होता है वह प्राण है और उस प्रयत्न के अनुमार जो भक्ति भापा-योग्य पुद्गलो का संग्रह करती है, वह है पर्याप्ति । पर्याप्ति
जब तक आत्मा कर्म-मुक्त नहीं हो जाती, उसकी जन्म-मरण की पगपरा नही रपती । मृत्यु के बाद जन्म निश्चित है । जन्म का अर्थ है उत्पार होना, एक देह त्याग कर दूसरे देह का निर्माण करना । जन्मांतरयात्रा के समय प्राणी का स्थूल शरीर छूट जाता है, वह सूक्ष्म शरीरतजम, पाभण के वाहन पर आम्द हो, आगे की यात्रा तय करता है। भावी जम में उन्ही दम गरीरो के माध्यम से पुन नये स्थूल शरीर का निर्माण करता है । उसकी प्रत्रिया और प्रम भी ज्ञातव्य है ।
जीव एक जना स्थिति को पूरी कर दूसरे जन्म-स्थान में आता है, सब पर गयमे पहले माहार ग्रहण करता है, स्वप्रायोग्य पुद्गलो का आकर्षण बौर मणा परता है । मजे बनतर यह ममूचे जीवन-निर्वाह के लिये पौद्गलिप लियो गा अमिय विशाम करता है।
मागे प्राणो दो चारे दह किसी भी जीव-योनि मे तापन हो, दियो लिग दिशी पुष्ट सालदन की अपेक्षा रहती है । यह नालवन मातारी, उसने साप एक विशिष्ट प्रकार की पोद्गलिक शक्ति
पी । जो इन नन्त्र विद्या मे "पर्याप्ति" के नाम से पहचानी
बि रा नीधा अप है-जेदन-धारण में उपयोगी पोद्गलिक
जीव-बिगानका पारिभापित मन्द है । "म्भे पोलिर नामप्र-निर्मात पर्याप्नि" (ज.सि दीपिका