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जैनधर्म जीवन और जगत् ही सूक्ष्म परमाणु हमारे सूक्ष्म शरीर का निर्माण करते हैं । आध्यात्मिक मूल्य
कर्म शरीर सस्कारों का वाहक है । जन्म-जन्मान्तरो की सस्कारपरम्परा इसके साथ जुड़ी हुई होती है । व्यक्ति का चरित्र, ज्ञान, व्यवहार, व्यक्तित्व, कर्तृत्व-इन सबके बीज कर्म शरीर मे ही सन्निहित हैं । जीनेटिक साइस के अनुसार व्यक्ति के आकार, प्रकार, सस्कार का मूल आधार "जीन" है। मानव शरीर मे लगभग एक लाख तीस हजार किस्म के 'जीन्स" हैं। प्रत्येक जीन-शृखला मे ढाई अरब "बेस" अथवा आधार-कण के जोडे होते हैं। इन्ही के आधार पर व्यक्ति का व्यक्तित्व बनता है। कर्म शास्त्रीय दृष्टि से व्यक्तित्व की विचित्रता का मूल कर्म शरीर है।
कर्म शरीर चेतना के सर्वाधिक निकट है। चैतन्य की रश्मियो को रोकने वाली सुदृढ दीवार है । चैतन्य को प्रकट करने के लिए उसका हटना आवश्यक है। भगवान महावीर ने कहा-"धुणेहि कम्म सरीरग"-कर्म शरीर को प्रकम्पित करो। दुर्बल करो। इसके समाप्त होते ही जन्म-परम्परा समाप्त हो जाएगी। इसका प्रारम्भ औदारिक शरीर की सिद्धि और शुद्धि से होता है। इसके लिए शरीर के क्रिया-तत्र, विचार-तत्र और नाडी तत्र का शोधन और सयम कर ग्रन्थि तन्त्र के स्रावो को बदला जा सकता है। उसका फलित है भाव-शुद्धि । भाव-शुद्धि से लेश्या पवित्र होती है। पवित्र लेश्या अध्यवसाय को प्रभावित करती है। पवित्र अध्यवसाय से कार्मणशरीर प्रकम्पित होता है । जन्म-जन्मान्तरो के सस्कार क्षीण होते हैं। मूर्छा टूटती है और चेतना का सूर्य समग्रता से प्रकाशित हो उठता है ।
आज अपेक्षा है, शरीर का सैद्धातिक और शरीर-शास्त्रीय अध्ययन भी अध्यात्म के सदर्भ मे करें और चेतना के केन्द्र तक पहुचने का पथ प्रशस्त करें।
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सदर्भ.-१ घट-घट दीप जले, पृष्ठ ५९, ६० आचार्यश्री महाप्रज्ञ ।
१ जैन-सिद्धात दीपिका ७/२४-२८ । २. जैन तत्त्व-विद्या पृ० २१,२२ । ३ प्रेक्षाध्यान, शरीर विज्ञान । ४ सबोधि-~१३/पृष्ठ २८७-२८८ ।