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जन्मान्तर यात्रा (गतिचक्र) जमी कोई भेद-रेखा नही है । वहा का प्रत्येक सदस्य अहमिंद्र है।
देवता व नारक जीव अपनी गति का आयुष्य पूर्ण कर पुन देव और नारक नही बन सकते । मनुष्य और तियंच चारो गतियो मे से किसी भी गति मे उत्पन्न हो सकते हैं । मोक्ष की प्राप्ति केवल मनुष्य गति से ही सभव
मनुष्य व पशु-पक्षी आदि तियंच हमारे प्रत्यक्ष हैं। स्वर्ग व नरक हमारे प्रत्यक्ष नही हैं । सामान्यत मनुष्य का विश्वास प्रत्यक्ष पर होता है, परोक्ष पर नही । वह परोक्ष या अदृश्य वस्तु के अस्तित्व को स्वीकार नही करता । इसीलिए भगवान महावीर ने कहा -
नरफो नाम ना स्तीति नैव सज्ञा विवेशयेत् । स्वर्गो नाम ना स्तोति नैव सज्ञा निवेशयेत् ।। (संबोधि १०/२६)
नरक नहीं है-ऐसा सकल्प मत करो। स्वगं नही है-ऐसा सकल्प मन करो । प्रत्यक्ष न होने मात्र में किसी के अस्तित्व को नकार देना सत्य के साय आख-मिचौनी करना है । वैसे सभी आस्तिक दर्शन स्वर्ग व नरक के अस्तित्व को मानते हैं।
गति-चक्र की मीमासा के सदर्भ मे यह जानना भी आवश्यक है कि प्राणी कौन-से आचरण से किस गति में जाता है, किस योनि में उत्पन्न होता
नरक गति के कारण
पचेन्द्रिय वध, महा-आरम्भ (हिंमा), महा-परिग्रह और मासाहार-- ये नरक गति के हेतु हैं। तियंच गति के कारण
माया-प्रवचना, असत्य भाषण ओर कूट-तोल, क्ट-माप ये तिर्यच गति के हेतु हैं। मनुष्य गति के कारण
विनीत, सरल, अल्पार भी, अल्प-परिग्रही, दयालु और मात्सर्य रहित होगा मनुष्य गति गा हेतु है । देव गति के कारण
मराग सयम - अवीतराग दशा में होने वाली सयम-माधना, श्रावक पमं पा पालन करना, अकाम-निजरा- मोक्ष की इच्छा विना किए गए तप ग होने वाली लात्मशुद्धि और अनान तप-ये देव गति के हेतु हैं ।
न पारो गतियो मे ससारी प्राणी अपने कृत कामों का भोग परते है। प्रापी जेना रम परता है, वमा फल भोगता है। किंतु इनका तात्पर्य पर रही है पि रन जन्म में दिए गए सुकृत या दुप्कृत का परिणाम अगले