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शरीर और उसका आध्यात्मिक मूल्य
हमारा अस्तित्व चेतन और अचेतन का जटिलतम सयोग है। चेतन है हमारी आत्मा और अचेतन है शरीर ।
आत्मा मरूप है, अरस है, अगध है और अस्पर्श है, इसलिए वह अदृश्य है । शरीर से वधी हुई है, इस दृष्टि से दृश्य भी है । ससारी मात्मा शरीर-मुक्त नहीं रह सकती। वह स्थूल अथवा सूक्ष्म किसी-न-किसी शरीर के आश्रित रहती है । चेतना की अभिव्यक्ति का माध्यम शरीर है। आत्मा और शरीर का सम्बन्ध चिर-पुरातन है । जन सिद्धात की भाषा में अनादि है। परिभाषा
"सुख-दु पानुभवसाधनम् शरीरम्" (ज० ति० दी० ७/२४) । जिस के द्वारा पोद्गलिक सुख-दुःख का अनुभव किया जाता है, वह शरीर है।
जीव की जितनी प्रवृत्तिया होती हैं, वे सव शरीर के माध्यम से ही होती है। गरीर मे मामान्यत हमारा तात्पर्य इस अस्पि-माम-युक्त स्थूल शरीर से ही समझा जाता है, जिसे "दि फिजिकल वॉडी" कहा जाता है। पर फिजिकल पॉटी के मिगय भी कुछ ऐसे शरीर होते हैं, जिनसे हम परिचित रही हैं।
जैन तत्त्व-विद्या के अनुसार शरीर के पाच प्रकार हैं(१) औदारिप (२) वैचित्य (३) आहार (४) तेजस् (५) पाण। इन पानी पो तीन वर्गों में बाटा जा सकता है। स्पल पारीर-औदारिक शरीर-हाड-मान नादि सप्त धातुनो द्वारा
निर्मित परीर । सूक्ष्म शरीर-प्रिय गरीर-नाना स्प बनाने में समपं शरीर ।
नाहारक परी -विचार-सवाम गरीर । सूक्ष्मतम परीर-जन्तापमय शरीर । वामनगरी-पर्मनय मतेर ।