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जीवन-शक्ति-प्राण
ससार में दो प्रकार के पदाथ हैं-सजीव और निर्जीव । इन दोनो पदार्थों की रचना रासायनिक तत्त्वो के सयोग-वियोग से होती है । जीवद्रव्य (प्रोटोप्लाज्मा) की आतरिक सरचना मे कोई रासायनिक विलक्षणता वैज्ञानिक प्रयोगो से मिद्ध नहीं हुई है । ऐसी स्थिति मे प्रश्न स्वाभाविक है कि फिर ऐमी कोनसी गुणात्मक भिन्नता है, जो सजीव और निर्जीव के बीच भेद-रेखा उत्पन्न करती है । जैन सिद्धात के अनुमार जीव और निर्जीव की विभाजक रेखा है - पर्याप्ति और प्राण । जिनमे आहार करने, शरीररचना करने तथा श्वास लेने की शक्ति है, वे जीव है, जिनमे ये शक्तिया नही है, निर्जीव हैं । पर्याप्ति और प्राण का योग ही जीवन है। इनका वियोग मृत्यु है।
मापा-शक्ति और चिंतन-शक्ति जीव के लक्षण नहीं हैं, किंतु वे विकास त अग्रिम विटु है ।
हम निरन्तर अपने शरीर के साथ रहते हैं । उसकी देखभाल का पूरा ध्यान रखते हैं। उसके विकास और स्वास्थ्य के प्रति सजग रहते हैं। पर शरीर रूपी यत्र किन शक्तियो से सचालित है-यह बहुत कम लोग जानते
हमारा शरीर जिन शक्तियो से सचालित है, उसमे एक महत्त्वपूर्ण शक्ति है "प्राण" । हमारा सारा जीवन प्राण रूपी इधन से ही सवालित है । इसे आधुनिक विज्ञान की भाषा मे "वाइटल फोस" कह सकते हैं।
जोधन-शक्ति प्राणा "इन्द्रियवलोच्छ्वासनि स्वासायपि" (आचार्यश्री तुलसी)
जैन सिद्धांत दीपिका ३/१२-१३ । प्राण का अर्थ है जीवनी शक्ति । जीवन के लिए भोजन, पानी और हवा जितन आवश्यक हैं, उसमे कहीं अधिक जरूरी है प्राण-शक्ति । स्थूल गरीर में जितनी नप्रियता और गतिशीलता है उसका गरण प्राण-शक्ति ही है । दूसरे शब्दो मे पहें तो मन, वाणी और पनं पी सपादन-शक्ति का नाम प्राण है । हमारे गरीर नन, चित्त और भावधारा में जो भी म्पदन, प्रकपन है, जो भी गनितीलता है, उसका स्रोत है -प्राण का प्रवाह । हमारे मानपाम जो शनि, र्जा, प्रयाग और चुम्बकीय धाराए गुजरती है, वे प्राण-शक्ति में प्रमाण है।