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जैनधर्म जीवन और जगत्
अजीव-चैतन्य का प्रतिपक्षी जह-तत्त्व अजीव है। पुण्य-शुभरूप मे उदय मे आने वाले कर्म-पुद्गल पुण्य है । पाप-अशुभरूप मे उदय मे आने वाले कर्म-पुद्गल पाप है ।
आस्रव-पुण्य-पाप रूप कर्म ग्रहण करने वाली आत्म-परिणति आस्रव है।
सवर-आस्रव का निरोध करने वाली आत्म-परिणति सवर है।
निर्जरा-तपस्या आदि के द्वारा कर्म-निर्जरण होने से आत्मा की जो आशिक उज्ज्वलता होती है, वह निर्जरा है।
वन्ध- आत्मा के साथ बधे हुए शुभ-अशुभ कर्म-पूद्गलो का नाम वध है।
मोक्ष-कर्म-विमुक्त आत्मा अथवा अपने स्वरूप में प्रतिष्ठित आत्मा ही मोक्ष है।
जैसा कि हमे पहले ही बताया जा चुका है कि वास्तविक तत्त्व दो ही हैं जीव और अजीव । फिर भी मोक्ष-साधना के रहस्य को बतलाने के लिए इनके नौ भेद किए गए है। इन नौ भेदो मे प्रथम भेद जीव का है और अतिम भेद मोक्ष का । जीव आत्मा की अशुद्ध-अवस्था है और मोक्ष विशुद्ध अवस्था । मध्यगत भेदो मे मोक्ष के साधक और बाधक तत्त्वो का निरूपण
अस्त्यात्मा शाश्वतो, बन्धस्तदुपायश्च विद्यते। अस्ति मोक्षस्तदुपायो, ज्ञेय-दृष्टिरसो भवेत् ॥
- सबोधि १२/४ आत्मा है, वह शाश्वत है, पुनर्भवी है । बन्ध है और उसका हेतु है । मोक्ष है और उसका उपाय है । यह ज्ञेय-दृष्टि है, सम्यक्त्व का आधारभूत तत्त्व है।
वन्ध पुण्य तया पापमानव फर्मकारणम् । भव-वीजमिद सर्व, ज्ञेय दृष्टिरसो भवेत् ।।
~संबोधि १२/५ वध, पुण्य, पाप तथा पांगमन का हेतुभूत आस्रव~ये हेय हैं, क्योकि ये ममार के बीज है । भव-परम्परा के मूल कारण हैं ।
निरोध कर्मणामस्ति, संवरो निर्जरा तया । फर्मणां प्रक्षयश्चपोपादेय-दृष्टिरिष्यते ॥
-सबोधि/१२६ कमों का निरोध करना मवर है और कर्म-क्षय से होने वाली आत्ममुद्धि निजंग है, यह उपादेय दृष्टि है।
साधना का आदि बिंदु है -लक्ष्य का चुनाव और दिशा का निर्धारण