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जैन-धर्म में जीव-विज्ञान
(षड्जीव-निकाय)
जन-धर्म अहिंसा-प्रधान धर्म है। अहिंसा का फलित है-मंत्री । सव जीवो के प्रति आत्मत्व बुद्धि का नाम मैत्री है। अहिंसा का अर्थ है सब जीवो के प्रति सयम । अहिंसा और मंत्री के विकास के लिए जीवो के अस्तित्व का वोध, उनके लक्षणो का बोध और उनकी विभिन्न अवस्थाओ का बोध करना आवश्यक है।
जैन आगमों मे जीवो के छह प्रकार बताए गए हैं, जो छ जीवनिकाय के रूप में प्रसिद्ध हैं । जीवो के छह प्रकार ये हैं -
० पृथ्वीकायिक ० अप्कायिक ० तेजस्कायिक ० वायु-कायिक ० वनस्पतिकायिक ० प्रसकायिक ।
काय का अर्थ है--- शरीर । भाति-माति के पुद्गलो से बने शरीरो के आधार पर जीवो का यह वर्गीकरण हुआ है ! उनका वर्णन क्रमश इस प्रकार है -
(१) काठिन्य आदि लक्षणो से जानी जाने वाली पृथ्वी ही जिनका काय-शरीर होता है, उन जीवो को पृथ्वीकाय या पृथ्वीकायिक जीव कहते हैं ।
मिट्टी, बालू, नमक, मोना, चादी, अभ्रक, हीरे, पन्ने आदि जितने भो प्रकार के प्रनिज पदार्थ हैं, वे सब पृथ्वीकायिक जीवों के पिंड हैं। मिट्टी फे एक छोटे-से ढेले मे नसरुय जीव होते हैं। ये जीव एक साथ रहने पर भी सपनी स्वतत्र सत्ता बनाए रखते हैं ।
आगम की भाषा मे एक हरे नावले के आयतन जितने मिट्टी के ढेले मे जितने पृथ्वीकायिक जीव हैं, उन सब मे मे प्रत्येय जीव के शरीर को पबूतर जितना वहा किया जाए तो एक लाख योजन लम्बे-चौडे जम्बूद्वीप में भी वे जीव नही नमा सरते।।
(२) प्रवाहसील द्रध्य जल ही जिनवा काय-गरीर होता है, उन जीवो को अपराय या अप्पायिक जीव रहते हैं। वर्षा, जलाशय, नदी नाले समुद्र आदि पा जल, ओले, बुग, ओस-ये नव कायिप जीवो के